02 दिसंबर 2010

औरत का अस्तित्व कहां..

भोर के धुंधलके में ही
बासी मुंह वह जाती है खेत
साथ में होते है
भूखे, प्यासे, नंग-धडंग बच्चे

हाथ में हंसुआ ले काटती है धान
तभी भूख से बिलखता है ‘‘आरी’’ पर लेटा बेटा
और वह मड़ियल सा सूखी छाती बच्चे के मुंह से लगा देती है
उधर मालिक की भूखी निगाह भी इधर ही है।

भावशुन्य चेहरे से देखती है वह
उगते सूरज की ओर
न  स्वप्न
न अभिप्सा।

चिलचिलाती धूप में वह बांध कर बोझा लाती है खलिहान
और फिर
खेत से खलिहान तक
कई जोड़ी आंखे टटोलती है
उसकी देह
वह अंदर अंदर तिलमिलाती है
निगोड़ी पेट नहीं होती तो कितना अच्छा होता।

शाम ढले आती है अपनी झोपड़ी
अब चुल्हा चौका भी करना होगा
अपनी भूख तो सह लेगी पर बच्चों का क्या।


नशे में धुत्त पति गालिंयां देता आया है
थाली परोस उससे खाने की मिन्नत करती है।

थका शरीर अब सो जाना चाहता है
अभी कहां,
एक बार फिर जलेगी वह
मर्दाने की कामाग्नि में।

आज फिर आंखों में ही काट दी पूरी रात
तलाशती रही अपना अस्तित्व।

दूर तक निकल गई
कहीं कुछ नजर नहीं आया
कहीं बेटी मिली
कहीं बहन
कहीं पत्नी मिली
कहीं मां
औरत का अपना अस्तित्व कहां....





तस्वीर- गुगल से साभार

4 टिप्‍पणियां:

  1. hridayshparsi rachna...
    sashakt bhav chitran..
    'abla jeevan hay tumhari yahi kahani.
    aanchal me hai doodh aur ankhon me paani.'
    kuchh bhi to nahi badla ,jahan badalna chahiye tha.

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  2. दूर तक निकल गई
    कहीं कुछ नजर नहीं आया
    कहीं बेटी मिली
    कहीं बहन
    कहीं पत्नी मिली
    कहीं मां
    औरत का अपना अस्तित्व कहां....
    सच है औरत का अस्तित्व कहॉ। बेहद ही विचारणीय मुद्दा।

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