31 दिसंबर 2013

एक पत्रकार का अपहरण (आपबीती)--अंतिम कड़ी

दिसम्बर की सर्द रात को कोहरे ने अपने आगोश में ले लिया था और हमारे प्राण को अपराधियों ने अपने आगोश में। जिंदगी और दोस्ती की बाजी में मैंने जिंदगी को दांव पर लगा दिया। मैं उसे यह समझाता रहा है कि हमलोग पत्रकार है और हमारा अपहरण करने से कोई फायदा नहीं होगा। जान भी मार दोगे तो क्या मिलेगा? फिर बॉस ने अपने एक साथी को बुलाकर हमें मरने का आदेश दिया। 
‘‘चलो काम खत्म करो यार, कहां ढोते रहोगे। खत्म कर दो यहीं।’’ देशी पिस्तौल की ठंढी नली कनपटी पर आकर सटी तो मेरे जैसे अर्ध-आस्तिक के पास भी ईश्वर को याद करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। हे भोला। जीवन के अच्छे-बुरे कर्म तरेंगन की तरह आँखों के आगे नाचने लगे। बुरे कर्मों को अच्छे कर्मों से संतुलित करने लगा पर पलड़ा बुरा का आज शायद भारी था इसलिए तो मौत सामने खड़ी थी और मैं जिंदगी से हिसाब किताब कर रहा था। खुद के बारे में सोंचने लगा। परिवार का क्या होगा? किसी का सहारा भी तो नहीं। एक छोटा भाई है बस। किसी तरह की जमा पूंजी तक नहीं। ईश्वर को याद करता हुआ उनसे बतियाने लगा। जैसे कि वह सामने हो और सब कुछ उनकी मर्जी से हो रहा हो। अपने अच्छे कर्म की दुहाई भी देता तब बुरे कर्म सामने आ जाता। देवा। शायद मौत के आगोश में ही जिंदगी की हकीकत सामने आती है। गीता का वचन, कर्म प्रधान विश्वकरि राखा याद आने लगा। कोई जैसे पूछ रहा था .
‘‘बताओ क्या किया इतने दिनो’’ और मैं जबाब दे रहा है। इसी तर्क वितर्क में कट की आवाज ने बुरे कर्म की प्रधानता बता दी, गया, पर नहीं, यह पिस्तौल के बोल्ट के चढ़ाने की आवाज थी।
 ‘‘रूको’’, बॉस की यह आवाज जैसे ईश्वर का आदेश हो। ‘‘चलो इसको लेकर चलते है।’’ सफर फिर से प्रारंभ हो गया। सर्दी की यह कंपकंपा देने वाली रात आज डरावनी नहीं लग रही थी और न ही अब मौत का डर लग रहा था। पता नहीं क्यों मौत की आगोश में होने के बाद उसका डर खत्म सा हो गया था या यूं कहें कि सोंच लिया था कि जब मरना ही है तो मरेगे, पर मैंने जिंदगी का दामन नहीं छोड़ा। ऐसे समय में आचार्य रजनीश की बातें याद आने लगी। 
‘‘मौत तो सुनिश्चित समय पर एक बार आनी तय है इसलिए उसके भय से बार बार नहीं मरना।’’
और मैं फिर मौत से बतियाने लगा।
‘‘काहे ले हमरा अर के मारे ले कैलो हो, जिंदा रहबो त कामे देबो।’’ मैं समझाने के विचार से बोला।
‘‘की काम देमहीं।’’
बातचीत प्रारंभ, मैं यह समझाने की प्रयास करने में सफल हो रहा था कि हमलोग समाज से तुम्हारी तरह ही लड़तें है। अन्याय का विरोध करते है। सफर में बातचीत का सिलसिला चलते चलते लगा जैसे दो मित्र आपस में बात कर रहे हो। मैं मनोविज्ञान के लिहाज से उसका आत्मीय होने का प्रयास करने लगा। फिर एकएका मुझे कंपकंपी लगने लगी। हाफ स्वेटर पर ठंढ बर्दास्त नहीं हो रही थी औंर मैं कंपाने लगा। तभी मेरे देह पर एक चादर आ कर रखा गया। 
‘‘ ला ओढ़ो, हम कोट पहनले हिए।’’ बॉस से युवक ने अपने देह से चादर उतार कर मेरे देह रखते हुए कहा। देवा। मौत को भी संवेदना होती है? और बोलते बतियाते हमलोग चलते रहे। इस बीच सभी का व्यवहार अब पहले जैसा नहीं रहा, थोड़ आत्मीय हो गया। रास्ते में कहीं झाड, तो उंचे उंचे टीले मिले। हमलोग चलते जा रहे थे। तभी रास्ते में बड़ी सी नदी मिली। सब मिलकर पार करने की सोंचने लगे। ‘‘पानी अधिक नहीं है पार हो जाएगें।’’ एक ने प्रवेश कर देखते हुए कहा। फिर जुत्ता, मौजा हाथ में और हमलोग पानी मे। 
नदी में पानी कम और कीचड़ ज्यादा दी। भर ठेहूना कीचड़ में धंसता हुआ जा थे। उस पार दूर एक गांव के होने का आभास हुआ। कुत्तों ने भौंकना प्रारंभ कर दिया था। थोड़ी ही दूर चलने पर नदी के अलंग पर ही एक धान का खलिहान मिला। हमलोग वहीं बैठ गए। कारण हमलोगों से ज्यादा उसमें से एक की हालत ठंढ से ज्यादा खराब थी। सब लोग वहीं बैठ गए। आलम यह कि उपरी तौर पर हमलोग आपस में धुलमिल गए थे। बोल-बतिया ऐसे रहे थे जैसे वर्षों पुराना मित्र। उनलोगों को विश्वास में ले लिया कि यदि मुझे छोड़ दिया तो किसी प्रकार का खतरा नहीं होगा। पुलिस को भी कुछ नहीं बताएगे।
 फिर उसमें से एक ने मचिस निकाली और नेबारी लहका दिया। सब मिलकर आग तापने लगे। फिर थोड़ी देर के बाद बॉस ने कहा कि चलो मुखिया जी से चलकर आदेश ले लेते है कि क्या करना है, मारना है कि छोड़ना है। और फिर दो साथी उस गांव की ओर चल दिए जिधर से कुत्तांे के भौंकने की आवाज आ रही थी। दो ने अपने हाथ में पिस्तौल निकाल लिया, 
‘‘कोई होशियारी नै करे के, नै ता जान यहां चल जइतो।’’
‘‘नै नै होशियारी की, जे तोरा करे के हो करो, हमरा ले भगवान तोंही हा, मारे के मारो, जियाबे के हो जियाबो।’’
 फिर धीरे धीरे आग लहकता रहा और सबकी आंखों में नींद नाचने गली। दोनों अपराधियों को नींद ने अपने आगोश में ले लिया। एक की पिस्तौल वहीं रखी हुई थी। पर मैं बेचैन हो रहा था। मेरे मन में यहां से भागने का ख्याल आने गला। पिस्तौल को अपने कब्जे में लेकर यहां से भाग सकते है? पर मेरे मन की यह बात यहीं दबी रह गई। मेरे मित्र मनोज जी के खर्राटे की आवाज ने मेरे अरमानों पर पानी फेर दिया। यदि मैं भागने की या इनको जगाने की कोशीश करता हूं तो यह लोग भी जाग जाएगें और फिर खेल खत्म.....
--------------------------------------------------------------------
      दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंढ और रात भर खुले आसमान में मीलों चलने के बाद कैसी हालत होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। जिंदगी और मौत से जद्दोजहद में आज न आग प्यारी लग रही थी और न ही ठंढ सता रही थी। हमेशा दिमाग में तरह तरह के ख्याल आते रहते और यूं ही सोंचते हुए करीब एक धंटा बीता होगा तब जाकर दोनों मुखिया से लौट आए। आते ही दोनों साथियों को जगाया और अलग हटकर खुसुर फुसुर करने लगे। फिर सरदार ने आकर हमसे बात की। मैंने खर्राटे ले रहे मित्र को जगाया और सरदार की बोलने की टोन बदली हुई थी। वह हमदोनों को समझाने लगा। 
‘‘देख भाय, जे होलौ उ मनेजर के गफलत में, हमसब ओकरा उठावे बला हलियो पर एक नियर गाड़ी होला से गड़बड़ हो गेलो, सेकरासे अब जे होलो से होलो छोड़ तो देबौ पर पुलिस के चक्कर में मत फंसाईहें।’’
समझ गया कि छोड़ने का मन बना लिया है पर कहीं पुलिस के पास न चला जाउं इसलिए डर रहा है। मैं फिर उससे अत्मियता दिखाते हुए बतियाने लगा।
‘‘देखो दोस्त, हमरा ले तों भगवान हा और हम पुलिस के पास काहे जाइबै, तो की कैला हमरा।’’
मैं उसे विश्वास दिलाने लगा कि मैं पुलिस को उसके बारे में कुछ नहीं बताउंगा और न ही किसी प्रकार की उससे नाराजगी है। यह करते कराते काफी समय बीत गया। उसे हमदोनों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। फिर मैंने मनोज जी को टहोका और उन्हांेने ईसारा समझ उसे भरोसा दिलाने लगे कि जो हो हमलोग आपके साथ रहेगे।
 फिर समय आया भरत मिलाप का। विदाई का वक्त ऐसा भारी पड़ा जैसे राम को जंगल छोड़ने के समय भरत पर भारी पड़ा हो। सचमुच हमसब भावुक हो गए थे। वे सब हमे छोड़ने वाले थे यह विश्वास हो गया था फिर भी हम यहां से जल्दी निकल जाना चाहते थे। अब समय था जुदा होने का और इस समय मैं भावनाओं को रोक नहीं सका। विश्वास ही नहीं हो रहा था हमलोग जिन्दा  घर जानेवाले है। मैं रोने लगा। फूट फूट कर रोने लगा। और फिर सरदार से लिपट गया। वह भी भावों में बह गया। रोने लगा। फिर मनोज जी भी भावुक हो गए। हमलोग बारी बारी सबसे गले मिल लिए। 
-------------------------------------------------------------------
 हमलोग वहां से जाने लगे। थोड़ी दूर बढ़ा ही था कि ‘‘रूको’’ की आवाज सुनाई दी। फिर से डर गया। हमलोग रूके तो सरदार ने आकर कहा कि "उसके साथी आपके पैसे लेने के लिए कह रहे है। क्या करे वे लोग नहीं मान रहा। साला कमीना छोड़ने के लिए बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ है। मैं तो यह नहीं कर सकता इसलिए जो जेब में थोड़ी बहुत हो तो दे देंगें तो उनलोगों को तसल्ली हो जाएगी।"
 फिर मनोज जी ने उपर की जेब से जो भी रखा था निकाल दे दिया। फिर उसने उनके घड़ी की तरफ ईसारा किया और उन्होने घड़ी  निकाल कर दे दिया। मैंने भी वहीं किया तो भी जेब में था दे दिया। मनोज जी के उपरी जेब में चार सौ और मेरे पास सौ रूपये थे। दोनों वहां से निकल गए। 
 वहां से निकलने के बाद भी यकीं नहीं हो रहा था कि उन्हांेने हमें छोड़ दिया है। लगता रहा कि पीछे से आऐगें और गोली मार देगें। धुप्प अंधेरे में चलता जा रहा था। न रास्ते का पता चल रहा था, न किसी गांव का। रास्ते में कोई चीज खड़ी होती तो लगता वही लोग खड़े है।
----------------------------
 खैर करीब एक धंटा चलने के बाद कुत्तों के भौंकने से यह आभास हो गया कि आसपास एक गांव है और हमलोग उधर ही चल दिए। कुछ दूर चलने के बाद एक गांव मिला। हमलोग घरों का दरबाज खटखटाने लगे पर किसी ने दरबाजा नहीं खोला। पूरा गांव घूम गया। अंत में एक दालान पर कुछ लोग पुआल बिछा कर बाहर ही सो रहे थे। हमलोगों ने जगाया। अब उनलोगों ने जब पूछा कि कहां घर है, कहां से आए हो तो अकबका गया। नवर्स तो थे ही कुछ बताना भी जरूरी था जिसपर उन्हें भरोसा हो जाए। बताया कि पटना से आ रहे थे रास्ते में नशाखुरानी का शिकार हो गया और फिर रेल से फेंक दिया गया और रात भर भटकते भटकते यहां पहूंच गया। रामा। ठंढ़ से देह थर्रथराने लगा। लगा जैसे रात भर की ठंढ अभी अभी सिमट आई है। पूरा देह बर्फ की सिल्ली की तरह जमने सा लगा था। दोनों वहीं पुआल पर बैठ गए। पैर में ठेहुंना तक कादो लगा हुआ था। लोगों ने पंडित जी कह कर घर वालों को जगाया। पंडित घर से निकले। गांव का नाम पूछा तो बताया गया, यह पटना जिले का बाढ़ थाना के अजगारा गांव है। बाढ़ का नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो गए। कुख्यात अपराधी सरगना अनन्त सिंह का ईलाका। यहां तो दिन में भी मार कर फेंक देगा और पता नहीं चलेगा। 
-----------------------------
 खैर, पंडित जी का पूरा परिवार जाग गया। बहुत अफसोस जताते हुए पंडित जी ने आश्रय दे दिया। ओढ़ने के लिए एक कंबल भी दे दी। रात के लगभग तीन बजे थे। अभी सुबह होने में एक-आध घंटे बाकी थे। पंडित जी की पत्नी ने चाय लाकर दिया और गर्म चाय ऐसे गले में उतर रही थी जैसे अमृत।
 अजीब आफत है। रात भर नींद नहीं आई। लगता रहा कहीं से कोई आया और हमे पकड़ ले जाएगा। खैर, सुबह हो गई। बस पकड़ कर बाढ़ आ गया और फिर सबसे पहले घर पर टेलीफोन किया। जनता था सब परेशान होगें। फिर बाढ़ से बस पकड़ कर घर के लिए चल पड़ा। मनोज जी के पास पैसे थे। उन्होने बताया कि उनकी पिछली जेब में दो हजार रूपये थे जिसे उन्होने छुपा कर रखा था।

 ओह, घर आया तो यहां का नजारा भी बदला बदला हुआ था। कई तरह की चर्चाऐं हो रही थी पर कुछ दिल को दुखाने वाली बातें भी सामने आई। मैं अपने घर गया। पत्नी का बुरा हाल था। मुझसे लिपट कर रोने लगी।  देवा, कैसे कैसे दिन दिखाते हो। इस बीच कई बातों की जानकारी मिली। यह कि मेरा छोटा भाई बरूण को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने यह पता लगा लिया कि अपहरण करने वाला सरदार तोरा गांव का संजय यादव है। वह अपने साथियों के साथ संजय यादव के घर पर जा धमका और धमकाया। भैया को कुछ हुआ तो पूरे परिवार को खत्म कर देगें। फिर उसे वहां से छोड़ देने का आश्वासन मिला। और अन्त में दुख हुआ तो यह कि उस दिन के अखबार में एक कॉलम की खबर भर छपी थी पत्रकार का अपहरण। वह भी स्थानीय पत्रकार मित्रों के सहयोग से। अखबार के लिए यह और लोगों की तरह ही एक खबर भर थी। हाय रे। जिसे अपना समझ रहा था वही अपना नहीं।
 खैर इस बीच साल दर साल बीतते गए और फिर बिहारशरीफ कोर्ट से नोटिस आया कि अपहरण कांड में गवाही देनी है। संजय यादव कई कंडों में पकड़ा गया था। दोनों ने जाकर गवाही दे दी कि संजय को नहीं जानता। अपना फर्ज निभाया। बहुत मंथन करता रहा कि गवाही दें की नहीं। पर संजय के व्यवहार और उससे किए गए वादों ने गवाही दिलबा दी।
 वहीं पिछले चुनाव में संजय यादव पंचायत चुनाव में मुखिया के लिए चुनाव लड़ने की योजना बनाई और फिर अखबार में खबर छपी की सरमेरा में गोली मारकर उसकी हत्या कर दी गई। वहीँ मुख्य सरगना और बरुआने मुखिया की हत्या हो गयी.
 आज तीस तारीख है और इस बात को याद करते हुए जिंदगी कई रंग दिखा देती है। अपराधियों का सच और जिंदगी की हकीकत, सबकुछ....

30 दिसंबर 2013

एक पत्रकार का अपहरण-(आपबीती)-२- पुरानी यादें ...

फिर अपराधी दोनों को कुछ दूर खेतों में ले गए और पूछ ताछ करने लगे। उनमें से एक मनोज जी को गलियाने लगा।-
‘‘साला, बड़का मैनेजर बनता है, बैंक में लॉन लेने के लिए जाते है तो टहलाता है, बाबा बनता है, अब बताओ।"
उसकी बातों से लगा कि वे पीएनबी बैंक का मैजेनर समझ कर दोनों का अपहरण किया है। यह बात भी समझ आ गई कि ये लोग मुझसे तुरंत पहले निकले मैनेजर का अपहरण करना चाहते थे पर एक ही रंग की गाड़ी दोने की वजह से कन्फयुज कर गए। 

खैर, हमदोनों पहले अपना अपना परिचय दिये और बताया कि हम बैंक मैनेजर नहीं हैं पर उनको मेरी बातों पर यकीन नहीं हुआ। चुंकि मेरे मित्र बढ़िया जैकेट, घड़ी और चश्मा लगाए हुए थे सो उनको लगता था कि यह मैनेजर ही है। फिर वहां से थोड़ी दूर खंधा में हम दोनों को पैदल ले गया और एक उंचे अलंग के नीचे सब मिलकर बैठ गया। मैंने गौर किया कि चार तो मेरे साथ थे पर एक हमलोगों से थोड़ी दूरी बना कर चल रहा था। हमलोग अपने पत्रकार होने का परिचय भी दिया पर वे लोग मानने को तैयार नहीं थे। अब दोनों के पास कोई चारा नहीं था। मनोज जी कुछ बोलना चाहे तो फिर पिस्तौल की बट से मार दिया। वे नर्वस हो गए। पर मैं समझ गया कि ये लोग अपराधी है और अब धैर्य के अलाबा कोई चारा भी नहीं, सो मैं उनमें से एक, जो देखने में थोड़ समझदार और संस्कारी लगता था, बतियाने लगा। मैंने अपना पूरा परिचय सही सही दिया। उसके एक मित्र के बारे में भी बताया कि जो  अपराधी गतिविधियों में शामिल रहता था और मेरे गांव का था। उसने उसे पहचाना। धीरे धीरे अंधेरा घिरने लगा। सड़कों पर केवल गड़ियों के चलने की आवाज और लाइट दिखता था। दिसम्बर का महिना था और मैने केवल हॉफ स्वेटर पहन रखा था सो ठंढ़ से कंपकपाने गला। फिर सबने दोनों को चलने के लिए कहा। खंधा में खेते-खेते हमलोग चलते रहे। कहीं चना के खेत में बड़े बड़े मिट्टी के टुकड़ों पर चलना पड़ा तो कहीं बीच में गेंहू के पटवन किए खेत के कीचड़ से होकर गुजरना पड़ा। हमलोग लगातार तीन चार धंटा तक यूं ही चलते रहे। इस दर्दनाक और डरावने सफर में मुझे लगा की शायद अब दोनों का आज अंतिम दिन है। इस बीच मनोज जी थक गए और चलने से इंकार कर दिया। तभी उनमे से एक ने भद्दी-भद्दी गलियां देते हुए उनको मारने लगा। फिर सबने मिलकर आपस में बात की और कहा कि दोनों को खत्म कर दो, कहां ले जाते रहोगे। दो युवकों ने पिस्तौल तान दी। इसी बीच मैंने साहस का दामन नहीं छोड़ा और उसके सरदार की तरह लगने वाले युवक से बातचीत प्रारंभ कर दी। बहुत आरजू मिन्नत करने के बाद वह थोड़ा समझा और साथियों को रोक दिया। दोनों ने राहत की सांस ली। इसी बीच मनोज जी के पैर में बाधी (मांसपेसियों में खिंचाव ) लग गई और वह गिर गए। मैने झट उनके पैर को सहलाते हुए उनको सहारा दिया। अपराधियों को लग रहा था कि वह नकल कर रहे हैं। खैर मैने कंधे का सहारा दे उनको लेकर चलने लगा। बीहड़ माहौल। दूर कहीं कहीं किसी गांव के होने का अभाव कुत्तों के भौंकने की वजह से ही होती थी या कहीं कहीं किसी गांव में एक-आध लालटेन के जलने की वजह से। एक बात महसूस किया कि गांव से थोड़ी दूर पर ही होता था कि गांव में कुत्ते भौंकने लगते और फिर गांव का अभास मिलते ही अपराधी रास्त बदल देते।
 सफर जारी था और बातचीत का सिलसिला भी। इसी बीच सरदार की तरह लगने वाला युवक बड़ा आत्मीय ढ़ग से बातचीत करने लगा। मनोज जी ने कहा- "जो हो, मारना हो तो मार दो।" हमलोग बस चलते ही जा रहे थे। बातचीत में युवक को मैंने कुरेदना प्रारंभ कर दिया। 

 मैंने कहा कि मैं पत्रकार होकर जुल्म के विरोध में ही आवाज उठाता रहा हूं और जानता हूं कि अपराधी मजबूर होकर ही अपराध करते है। मेरी बात उसे चुभ गई। फिर उसने अपनी दारून कथा सुनाई। कैसे रोजगार की तलाश में वह भटकता रहा। कैसे रोजगार के लिए बैंक से लॉन लेने के लिए वह लगातार बैंक का चक्कर लगाता रहा है और बैंक ने लॉन देने से मना कर दिया। मैनेजर तो मिलने तक को तैयार नहीं हुआ। बातें होती रही और हमलोग चलते रहे। फिर जब वे लोग थक गए तब जाकर एक स्थान पर बैठ गये। उस युवक ने मुझे थोड़ी दूर साथ चलने की बात कही। मैं सहम गया। शायद मुझे एकांत में लेजाकर मार देगा? 
 पर नहीं वह मुझसे मेरे मित्र के बारे में पूछने लगा।
‘‘लगो है इ कोई बड़का आदमी है? बता दे तो तोरा छोड़ देबौ।’’ उसने अब अपनी मगही भाषा का प्रयोग किया। देवा। मनोज जी मोटरसायकिल शो रूम के मालिक थे, इस लिहाज से यदि यह बात उसे पता लग जाती तो निश्चित ही वह उन्हें पकड़ के ही रख लेता। वह शातीर भी था जो मुझे छोड़ देने का प्रलोभन देने लगा। मैं उसे समझाता रहा है कि यह पटना से थक हार कर बरबीघा आ गए है और अखबार का एजेंट तथा पत्रकार है। वह मानने को तैयार नहीं हुआ और मेरी देस्ती की परीक्षा लेने लगा।
देवा, दोस्ती बचाउं की जान..........

जारी है..

29 दिसंबर 2013

जीवन का मंत्र....आज एक पुरानी कहानी

बचपन में सुनी कहानी आज भी चरितार्थ है। खासकर केजारीबाल के संदर्भ में। एक बुढ़ा आदमी जब मरने लगा तो उसने अपने बेटा को बुलाकर कहा कि चलो तुमको समाज के बारे में अच्छी तरह सबक दे देता हूं। उसने एक घोड़ा मंगाया और उसके उपर खुद बैठ बेटा को लगाम पकड़ कर चलने के लिए कहा। कुछ दूर जाने पर लोगों ने बुढ़े की निंदा करनी प्रारंभ कर दी। कैसा आदमी है बुढ़ा हो गया और घोड़ा पर बैठ कर चल रहा है बेटा से लगाम खिंचा रहा है।
फिर उसने बेटा को घोड़ा पर बैठा दिया और खुद लगान पकड़ कर चलने लगा। थोड़ी दूर जाने के बाद लोग बेटा की निंदा करने लगे, कैसा नालायक बेटा है, खुद घोड़ा पर बैठा है और बाप पैदल चल रहा है। घोर कलयुग है।
फिर दोनों घोड़े के उपर बैठ गए चलने लगे। थोड़ी दूर जाने के बाद लोग दोनों की निंदा करने लगे। कैसा अमानुष है? जरा दया नहीं? बेचारे घोड़े की जान ले लेगा?
फिर अन्तिम विकल्प के तौर पर दोनो पैदल चलने लगे। फिर लोगों ने निंदा करनी शुरू कर दी। वेबकुफ आदमी है। घोड़ा रहते हुए भी पैदल चल रहा है।
मेरे लिए यह कहानी जीवन का मंत्र है। इसके बाद कुछ नहीं बचता। आज केजरीवाल के प्रसंग में यह कहानी प्रसांगिक है।

एक पत्रकार का अपहरण-(आपबीती)-1 पुरानी यादें

30 दिसम्बर 2005 की वह काली शाम जब भी याद आती है मन सिहर जाता है। उस रात बार बार मौत ऐसे मुलाकात करके गई मानों रूठी हुई प्रेमिका को आगोश में लेने का प्रयास कोई करे और वह बार बार रूठ जाए।
 समय करीब चार बजे थे। नालन्दा जिला के सरमेरा प्रखण्ड से प्रभात खबर अखबार के लिए रिर्पोटर तथा एजेंट खोजने गए थे। उस समय पत्रकारिता का नया नया जोश था, सो अखबर के अधिक से अधिक बिक्री हो इसके लिए अपने मित्र मनोज जी ने एजेंसी ली। उस समय अखबार लगभग लॉन्च ही हुई थी। यहां बिक्री नही ंके बराबर थी और इसीलिए जुनून में आकर मोटरसाईकिल पर धूम-धूम कर अखबार का ग्राहक बनाया, सुबह सुबह कई धरों में भी अखबार पहुंचाया। पूरे शेखपुरा जिला का एजेंसी लिया था सो अखबार की बिक्री बढ़ाने के लिए मेहनत कर रहा था। इसी सिलसिले में सरमेरा जाना हुआ। लौटते लौटते चार बज गए।
 रास्ते भर आदतन हंसी मजाक करते हुए दोनों मित्र लौट रहे थे तभी तीन-चार किलोमीटर दूर जाने के बाद गोडडी गांव के पास मैने मोटरसाईकिल रोकने का आग्रह किया। लालू यादव के सरकार का अभी ताजा ताजा ही पतन हुआ था सो अपराधियों का आतंक और भय बरकरार था। मैंने कहा-
‘‘रोको जरी गड़िया, पेशाव कर लिऐ।’’
‘‘घुत्त तोड़ा तो कुछ डर-भय नै हो, क्रिमनल के ईलाका है कहीं कोई अपहरण कर लेतो तब समझ में आ जाइतो।’’
‘‘धुत्त छोड़ो ने, हमरा अर के, के अपहरण करतै, लपुझंगबा के।’’
और मोटरसाईकिल रोक दिया गया। हमदोनों फारीग हुए। उन दिनों बरबीघा-सरमेरा सड़क की हालत एक दम जर्जर थी। सड़क कम और गड्ढे ज्यादा थे। इसी वजह से बहुत कम बसें चलती थी। जैसे ही हमलोग मोटरसाईकिल पर चढ़ने लगे कि सेम कलर, सेम मोडल की एक मोटरसाईकिल पर दो लोग बगल से गुजरे। नंबर प्लेट पर मेरी नजर गई तो पंजाब नेशनल बैंक लिखा हुआ था। उस पर भी दो लोग सवार थे।
‘‘देखो, ऐकरा अर के  अपहरण करतै कि हम गरीबका के।’’-मैंने कहा और फिर वह मोटरसाईकिल मुझसे थोड़ी आगे निकल गई। मनोज जी ने  बताया कि यह सरमेरा पंजाब नेशनल बैंक का मैनेजर है। दोनों इसी चर्चा में मशगुल थे कि कैसे कोई इसका अपहरण नहीं करता। उन दिनों अपराधियों का बोलबाला था। कुख्यात डकैत कपिल यादव ने कुछ दिन पहले ही मेंहूस रोड में दो लोगों को बस उतार कर आंखें फोड़ दी थी।
 खैर, हमदोनों निश्चिंत भाव से बोलते-बतियाते, हंसी मजाक करते हुए चले जा रहे थे। मैनेजर की मोटरसाईकिल आगे निकल गई। तभी अचानक तोड़ा गांव के पूल के पास  पहूंचते ही तीन-चार लोगों मोटरसाईकिल के आगे पिस्तौल तान कर खड़ा हो गए। हमदोनों कुछ समझ पाते कि तभी मनोज जी के सर पर पिस्तौल की बट से मारना प्रारंभ कर दिया। फिर दोनों मोटरसाईकिल से उतर गए। अभी तक किसी भी प्रकार के अनहोनी की आशंका नहीं थी। पर तभी दोनों को सड़क के नीचे खेतों में पिस्तौल की बट से मारते पीटते ले जाने लगे। पहले तो लगा कि शायद लूटरें हो, पर जब खेतों में कुछ दूर ले जाकर सवाल जबाब करने लगा तो हम दोनों समझ गए कि दोनों का अपहरण कर लिया गया...

जारी है...

28 दिसंबर 2013

मैं आम आदमी हूँ ...

अरूण साथी
मैं आम आदमी हूँ..... कहने को तो मैं प्रजातंत्र का राजा हूं पर मुझे हरम में रखा गया। मुझे देख कर पुलिस उसी प्रकार टूट पड़ती जैसे किसी गली कोई नया कुत्ता आने पर अन्य कुत्ते टूट पड़ते। 
मेरा गुस्सा राजाओं महाराजाओं को आज तक नहीं दिखे। मेरा गुस्सा तब भी नहीं दिखा जब फेसबुक, ट्वीटर, ब्लॉग सहित अन्य सोशल मीडिया पर अपने गुस्से को रखने लगा। यहां भी राजा-महाराओं के चहेते मुझपर झंझुआ कर टूट पड़ते? मेरा गुस्सा उस समय भी तुमको नहीं दिखा जब जनलोकपाल के लिए एक बुढ़ा को कई दिनों तक अनशन पर छोड़ दिया गया। संसद में बैठ कर हंसी-ठठ्ठा किया। और तो और पुलिस ने रात के अंधेरे में लाठियों से मेरे बजूद को लहूलहून कर दिया। मेरा गुस्सा उस समय भी नहीं दिखा जब योग गुरू को अनशन करने पर विवश होना पड़ा। वहीं पुलिस जो मेरी रखवाली के लिए थी मेरे उपर लाठियों से प्रहार कर मेरी औकात बता दी। योग गुरू को भागकर जान बचानी चाही और उन्होने गिरफ्तार कर लिया। 
मैं वही आम आदमी हूँ जिनकी बहन-बेटियों के साथ राक्षस रूपी गिद्धों ने बोटी-बोटी चलती बस में नोच डाली। जब विरोध करने के लिए सड़क पर उतड़ा तो हाय, तुमने मेरा मजाक उड़ाया। लाठियां बरसायी। बेटियों को घर से निकालने पर तंज किए। बेटियों के कपड़े पर तंज किए। 
मैं वही आम आदमी हूं जिसके नौकर ही उससे नौकरों से बदतर व्यवहार करते है। मैं वही आम आदमी हूं जो जेब कट जाने से लेकर आबरू लुट जाने तक पर भी पुलिस-थाने नहीं जाना चाहता। जायें भी क्यों? वहां मेरे साथ क्या किया जाता है वह मैं लिख भी नहीं सकता। ओह ओह....
मैं वहीं आम आदमी हूं जिसे सचिवालय से लेकर ब्लॉक ऑफिस से हडका हड़का कर भगा दिया जाता है। मुझे पीने का पानी और बिजली के लिए चिरौरी करनी पड़ती है। अस्पतालों में दवा के आभाव में मैं तड़प तड़प कर मर जाता हूं? अच्छे स्कूलों में मेरे बच्चे पढ़ नहीं सकते? 
मैं वहीं आम आमदी हूं जिसे तुमने हमेशा हिन्दू-मुस्लमान में बांटा, जात-पात में बांटा? वोट के लिए दंगों में मैं ही मरा? भगवान के लिए मैं ही मरा? तुम्हारा अटटहास मेरे कानों में गुंजती रही। यूं तो मैं नरक में रहता हूं पर तुमने मुझे नरक में भी ठेला-ठेली करने पर विवश कर दिया।
थैंक्स केजरीबाल, तुमने मुझे मुझसे मिला दिया.....

22 दिसंबर 2013

बैंगन बेचबा गांव

जब भी कहीं रिश्तेदारी में गया लोग मेरे गांव (शेरपर) के बारे में यही कहते थे कि मेरा गांव तो बैंगन बेचबा गांव है। इसको लेकर चिढा़ते भी थे। कहते थे कि जब मेरे गांव कुटूम-नाता जाता है तो वहां के लोग बैंगन के खेत में काम करते ही नजर आते है और जब उनसे पूछा जाता है तो वे इस प्रकार जबाब देते है-
‘‘रिश्तेदार-क्या हाल चाल है कुटूम?’’
‘‘किसान-जी बैंगन में बहुत बीमारी लगल है।’’
‘‘रिश्तेदार-और घर-परिवर सब बढ़िया?’’
‘‘किसान-हां जी बैंगन इस साल कनाहा हो गया है।’’
समय बदला, अब मेरे गांव में बैंगन की जगह फूलगोभी की खेती होती है जिससे किसान अच्छी कमाई करते है। फूलगोभी किसानों के लिए वरदान की तरह है। एक बीघा फूलगोभी लगाने वाले किसान तीस से साठ हजार छः माह में कमा रहे है। सोंचता हूं मेरे गांव के पुर्वज बहुत समझदार होगें जो सब्जी की खेती करना बर्षों पहले सीख लिया था...


20 दिसंबर 2013

अच्छे लोगों को साहस दिया है आप पार्टी ने.

     
वर्तमान समय में राजनीति गंदगी का प्रर्याय बन चुकी थी। जब भी सभ्य जनों के बीच राजनीति की बातें शुरू होती थी तो वहीं कई लोग एकबारगी नाक-मुंह सिकोड़कर राजनीति पर बात नहीं करने की सलाह देते थे। राजनीति अच्छे लोगों के लिए नहीं रह गई। तब इसमें चोर-उच्चके, बेइमान लोग अपनी पकड़ बना ली। हत्या, अपहरण कर पैसे जमा करो और चुनाव लड़ कर सफेदपोश बन जाओ। आम अदमी पार्टी ने आज अच्छे लोगों को राजनीति में आने का साहस दिया। गरीब आदमी, समाजसेवी भी देश की सेवा आज हाथ बंटाने का साहस कर सकता है। आचार्य ओशो ने कहा था कि ‘‘कोई भी स्थान खाली नहीं रहती है। उसे भर जाना प्राकृतिक सच है। राजनीति में आज गंदे लोग इसलिए है कि उसमें अच्छे लोग नहीं जा रहे।’’ इसी को आज चरितार्थ होता हुआ देख अच्छा लग रहा है।
खांसता हुआ केजरीबाल एक आम आदमी की ही तरह लपुझंगा टाइप लगते है। उनके बोलने में अंहकार की भाषा नहीं होती है। उनको देख कर नेता टाइप बाला डर भी नहीं लगता है।  न ही उनमें राहुल सरीख रौब है जहां आम आदमी जाने से सहम जाए। बस इसी बात से सभी नेताओं की नींद उड़ गई। 
आज किसी भी मीडिया विमर्श में भाजपा, कांग्रेस एक साथ आप के नेताओं पर टूट पड़ते है। ठीक उसी प्रकार जैसे कौओ का झुंड उनके बीच आ गए कोयल पर टूट पड़ता है। पर टूट पड़ने से कुछ नहीं होने वाला। दिल्ली चुनाव से पूर्व दोनों पार्टियां आप का उपहास कर रही थी। परिणाम के बाद बोलती बंद हो गई।
आज सभी पार्टियों को इससे सबक लेने की जरूरत है। न सिर्फ मुख्य दोनों दलों को बल्कि क्षत्रिये और वाम दलों को भी। कथनी और करनी की असमानताओं के बीच आज वाम दल कहीं नजर नहीं आते। मीडिया विमर्श में भी चैनल वाले भी अब उनको जगह नहीं देते? यह वाम विचार धारा के बिलुप्त होने के खतरों की ओर संकेत करता है। वाम दल भी उन्हीं विचारधारा शुन्य पार्टियों की तरह छद्म सेकुलरवाद को लेकर गठबंधन की राजनीति करने लगी और राजनीति बयान बाजी भी। आज जमाना सोशल मीडिया का है। किसी भी बात को दबाया नहीं जा सकता, सो कथनी और करनी की असमानता नहीं चलने वाली।
इसी प्रकार क्षेत्रिय दल और कांग्रेस भी जिसप्रकार राजनीति को जमींदारी की वंशबाद राह ढकेल दिया और जनता उसके लिए रैयत हो गई और छद्म सेकुलर का नाटक दोनों दलों के द्वारा मिलजुल कर मंचित किया जाना लगा तो आम आदमी ने उसका भी जबाब दे दिया। वहीं देश को दो ध्रुविये राजनीति से आज निकलने का रास्त भी मिल गया है।

वहीं युवाओं ने अपने उपर लगे लफुआ होने के कलंक हो धो लिया है। आम तौर पर युवाओं पर देश और समाज के प्रति असंवेदनशील होने का आरोप लगता रहा है। आम आदमी पार्टी को मुकाम पर पहूंचा कर युवाओं ने अपनी संवेदनशीलता का परिचय दिया है।

जो भी हो, आज सभी राजनीति दल चक्रव्युह रच कर एक साथ केजरीबाल को फंसाने मे लगे है। अन्ना को भी इसका हिस्सा उसी प्रकार बना दिया जिसप्रकार भीष्म पितामह को। एक बारगी सभी पार्टियां और मीडिया चिल्ला रही है कि आप सरकार क्यों नहीं बना रही। जैसे ही किसी के साथ मिल सरकार बनाएगें तो चिल्लाना शुरू होगा,  नंगा हुआ केजरीबाल का चेहरा..

यही तो राजनीति है, देखना हो गया कि इस चक्रव्युह को केजरीबाल और उनकी पार्टी कैसे तोड़ती है?

01 दिसंबर 2013

काचूर छोड़ता आदमी...

सांप की ही तरह
आदमी भी छोड़ता है काचूर ...
कभी धन-सम्पदा
कभी मान-प्रतिष्ठा
कभी कभी तथाकथित
विद्वता का...पारदर्शी काचूर ...

काचूर छोड़
सांप देह से उतार देता है
अपने अस्तित्व का एक हिस्सा....

और आदमी
ओढ़े रखता है
अपने अंहकार को
काचूर की तरह....

सुना है कचुराल सांप
डंसने से बचता है
पर कचुराल आदमी
डंसता रहता है
अपना-पराया
सबको....


28 नवंबर 2013

देवता के होने पर सवाल उठाता राहू-केतू

तेजपाल, आशाराम और जो सामने नहीं आये उनको मेरी यह कविता समर्पित है ..........

कई बार जिंदगी को जीते हुए खामोशी से बिष पीना पड़ता है, कहीं कोई धन का तो कहीं कोई विद्वता का विष वमन कर देता है। मन में एक टीस सी उठती है और फिर कलम से कविता निकल पड़ती है। कहीं कहीं देवता साबित करने के लिए लोग क्या क्या नहीं करते, अपनी बुराईओं को भूल आप पर सवाल खड़े करते है, मैं आज देवता के होने पर ही सवाल खड़ा कर रहा हूं. आप प्रतिक्रिया दे, थोड़ी देर रूक कर पढ़े.... फिर कुछ कहते जाए...
---------------------------
देवता के होने पर सवाल उठाता राहू-केतू
---------------------------
अमृत बंटते समय
मैं भी खड़ा हो जाता
देवाताओं की पांत में
पर मैं राहू की तरह साहसी नहीं था...

पर आज भी राहू-केतू
साहस से
शापित होकर भी
सवाल खड़े किए हुए हैं
देवताओं के देवता होने पर...

सवाल
जो उठता है
देवताओं के अमरत्व पर
उनके छल पर...

भले ही नहीं सुनो
पर पूछोगे तो कभी...

"कि" इस नक्कारखाने में
तूती की यह आवाज कहां से आ रही है...

17 नवंबर 2013

रोटी का भूगोल-इतिहास

भूखे बच्चों के लिए
रोटी का भूगोल
कभी पूनम
तो कभी दूज के चाँद
की तरह होता है...
और कभी कभी
अमावस्या का चाँद....


और रोटी का इतिहास..
भी जानता है भूखा बच्चा
कि कैसे रोटी की खातिर
हवेली में फटा था
माँ का आंचल.....

जानता है वह
कि उसकी माँ
बदल देती है रोटी का भूगोल
गोल गोल रोटी को
तिकोना बना
बांट कर बच्चों में
खुद लेट जाती है
भूखे, रात भर करवट बदलते हुए...

और यह भी जानता है वह
कि रोटी और नींद की
रिश्तेदारी है
तभी तो बगैर रोटी
नींद भी नहीं आती....

..हे प्रजातंत्र के राजा
बदल सको तो रोटी का
इतिहास-भूगोल बदल दो
मुझे और कुछ नहीं चाहिए....

10 नवंबर 2013

ख्वाब की तामीर

रोज तुम आती हो आंखों में तसव्वुर बनकर।
ख्वाबों में सही, ख्वाब की तामीर तो होती है।।

लैला- मजनूँ  की तरह न हो मशहूर अपने किस्से।
आंखों में पाक मोहब्बत की तस्वीर तो होती है।।

संगमरमर से तराशा ताजमहल तुमको कैसे कह दूं।
ताज की दीवारों पर भी दर्द की तहरीर होती है।।

मोहब्बत है तो फिर खुदा की आरजू क्यूं हो।
पाक-मोहब्बत में खुदा की तस्वीर होती है।।

जुनून में कभी मोहब्बत को उदास मत करना।
खुश्बू के पांवों में भी कहीं जंजीर होती है।।

21 अक्तूबर 2013

प्रधानमंत्री


एबीपी न्यूज पर एक ऐतिहासिक धारावाहिक है प्रधानमंत्री । वर्षों बाद कोई धारावाहिक देखने के लिए एक सप्ताह का इंतजार करता हूं और पूरा एक घंटा देखकर ही हिलता हूं। कल इसको देखते हुए खून खौल गया। कांग्रेस ने ही देश को तोड़ने की शुरूआत की। 1984 के सिख दंगों के बाद तत्कालिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा कि ‘‘जब बड़े दरखत गिरते है तो आसपास की जमीन हिलती ही है।’’ कत्लेआम होता रहा और सरकार खामोश रही और इतना ही नहीं दंगा कराने वालों को पद और प्रतिष्ठा भी प्रदान किया गया।

वहीं शाहबानों प्रकरण पर सुप्रिम कोर्ट का फैसला पलट कर कांग्रेस ने मुस्लिम महिलाओं को नरक भोगने पर मजबूर किया और मुस्लिम तुष्टीकरण की जा शुरूआत की थी उसकी सजा आज तक हम भोग रहे है और मंदिर का ताला खुलबाकर बाबरी मस्जिद को गिराने की बुनियाद भी कांग्रेस ने ही रखी और आज सेकुलर का तमगा भी उसी के पास है.. हाय राजनीति...

14 अक्तूबर 2013

रावण जिंदा रह गया!

पुतले तो जल गए, रावण जिंदा रह गया।
देख कर हाल आदमी का, राम शर्मिंदा रह गया।।

सब कुछ सफेद देख, धोखा मत खाना साथी।
बाहर से चकाचक, अंदर से गंदा रह गया।।

फैशन के दौर में गारंटी की इच्छा ना कर साथी।
अब तो भंरूये भी दुआ मांगते, धंधा मंदा रह गया।

जो दिखता है सो बिकता है, पूजा, पंडाल, यज्ञ, हवन।
बेलज्जों की कमाई का साथी धंधा, चंदा रह गया।

दीन, धर्म, ईमान का चोखा है व्यापार।
सौदागरों के हाथों का साथी, औजार निंदा रह गया।।

नया दौर का नया चलन है, देखो आंख उघार।
रावण ही पुतला जला कर कहता, अब तो यह धंधा रह गया।।

08 अक्तूबर 2013

बांझ का बदला (एक पत्रकार की आँखों देखी)

बात 2007 के जनवरी महीने की है। शाम के पांच बजे थे और लग रहा था जैसे रात हो गई हो। शीतलहरी सांय सांय चल रही थी। अमूमन ऐसे मौसम में शाम में नहीं निकलता था पर आज जाने क्यों मन नहीं लग रहा था, सो बाइक उठाई और निकल गया। सबसे पहले थाना गया। सोंचा शायद कोई खबर ही मिल जाए। एक रिर्पोटर की जिंदगी में अक्सर ऐसा होता है कि जब आप प्लान नहीं करते है और बड़ी खबर आपको मिल जाती है। देखा थानेदार एक स्त्री को डांट रहा है पर वह स्त्री निडर होकर उससे बोलती जा रही है।

‘‘चुप रहती है कि नहीं, बरी आई है केस करने? भतार पर केस करके की मिलतौ?’’
‘‘नै साहेब, आय पांच साल से तो हम चुप्पे ही, पर आय नै। आय उ निरबंशा हमरा केरासन छिट के जला रहल हल, पर हमर जिनगी इतनौ सस्ता नै है।’’ 
‘‘बड़ी खच्चड़ जन्नी है भाई, ऐसनो...’’
‘‘हां जी दरोगा बाबू, खच्चड़ तो हम हैइऐ ही, तोहूं मर्दाने ने हो उकरे दने बोलभो, उ निरबंशा, हिजड़बा के चढ़े के समांग नै है और बांझ बोल के मारो है हमरा।’’

तब तब थानेदार की नजर मेरे उपड़ पड़ गई और उसने अपना टोन बदल दिया-
‘‘ठीक है ठीक है लाओ खिल के दो..केस कर देते है... पर केस करने से घर थोड़े बस जाएगा...?’’
‘‘हमरा अब घर बसाना नै है.... ओकरा सबक सिखाना है।’’

मैं समझ गय, मामला कुछ गंभीर है, सो एक कुर्सी खींचकर बैठ गया। उस स्त्री की उम्र वही कोई पच्चीस साल के आस पास होगी। उसके शरीर से केरोसीन की बू आ रही थी और उसका सारा शरीर केरोसीन से भींगा हुआ था। उसके शरीर का गठीलापन उसकी तरफ नजर उठाने पर विवश कर रहा था। गेहूंआ रंग, साधारण कद काठी और बड़े बड़े उभार...जो उसके ब्लाउज के खुले हुए हुक से बार बार अश्लील ईशारे कर अपनी ओर खींच रही थी और थानेदार दोनों उभारों के बीच गहरी घाटी में डूब उतर रहा था। मैं भी अपनी आंखों को तृप्त करने से खुद को नहीं बचा सका। एक भरपूर नजर उस स्त्री पर डाली और एक ठंढी आह भरते हुए कहा-

‘‘क्या बात है बड़ा बाबू, क्या कष्ट है इसको?’’
‘‘कुछ नहीं बस सांय-माउग का झगड़ा है झूठ-मूठ के पुलिस को घसींट रही है।’’
‘‘सांय-माउग का झगड़ा! वाह, कोेई जान लेवे पर उतरल है औ तोरा सांय-माउग के झगड़ा नजर आबो है।’’
‘‘क्या बात है बताइऐ, मैं एक रिर्पोटर हूं, शायद कुछ मदद करू?’’
‘‘देखो उ हिजड़बा की कैलक है।’’

और उसने कमर पर लपेटी हुई सूती की पतली सी साड़ी बेझिझक हटा दी। ओह, वहां जख्मों के कई निशान थे  और उससे रिसता हुआ लहू अभी ठीक से सूखा नहीं था। फिर उसने अपनी पीठ को मेरी तरफ करके पेटीकोट को थोड़ा नीचे सड़का दिया। कई नए पुराने जख्म समूचे पीठ में किसी के क्रुरूरता की गवाही दे रहे थे। फिर वह जांधों पर बने जख्म दिखाने लगी और मैने रोक दिया, बस बस हो गया।

‘‘नहीं साहेब, देख लहो! सांय-माउग के झगड़ा केतना जुलम करो है? औ हां हमरा अब कौनो लाज नै है साहेब, इहे लाज त पांच बरिस तक मार गारी खाय पर विवश कर देलकै। अब बचल की, जिनगिये नै रहतै तब की करबै, निरबंशा कहो है जरा के मार देबौ और सब कहतै बांझी अपने से मर गेलै।’’

अब मेरे कैमरे ने अपना काम प्रारंभ कर दिया था। उसके जख्मों को उसके दर्द के साथ साथ कैद करने लगा।

ओह, शादी के पांच साल हो गए थे और बच्चा पैदा नहीं कर पाने की सजा परवतिया झेल रही थी। उसके शरीर पर बने जख्म उसके मां नहीं बन पाने की सजा थी।
मेरी उपस्थिति ही इस बात की गवाही थी कि थानेदार अब रिर्पोट दर्ज कर कार्यवाई करेगा, क्योंकि किसी पीड़ित की खबर को प्राथमिकता देने की मेरी फितरत से वह आने के कुछ ही माह में वाकिफ हो गया था। सो कागजी कार्यवायी के बाद पुलिस की जीप निकली और थानेदार उसपर परवतिया को बैठा कर चल पड़ा। पीछे पीछे मैं भी हो लिया। शीतलहरी और कुहासे को चीड़ता हुआ उसके गांव पहूंच गया। पुलिस की गाड़ी जैसे ही गांव में प्रवेश किया गांव के बच्चे और बड़े उसके पीछे पीछे चलने लगे। उसके घर के पास पुलिस पहूंची तो गांव के लोग बड़ी संख्या में जमा हो गए। 

‘‘रमचरना के माउगी पुलिस लेके आई है।’’ जंगल में आग से भी तेज गांव में यह खबर फैल गई थी। उसके घर से रमचरना की मां निकली और सीधा जाकर परवतिये में मुंह पर एक तमाचा जड़ दिया। 

‘‘हो गेलौ मन पूरा, रंडीया, खजनमा के एकगो टुसरी तो निकललै नै और पुलिस ले के आ गेलहीं हैं।’’
परवतिया भी जैसे कोई फैसला करके आई थी आज-
‘‘टुसरी निकलतै कैसे? बेटबा से नै पूछीं की ओकर टूसरिया उठो हउ।’’ 
सारा गांव सन्न रह गया, जितनी मुंह उतनी बातें। एक दम मरदमराय औरत है भाई, ऐसनो बात बोले के है....?
‘‘त हम त पहले से ही कहो हलिए इ औरत छिनार है, अपने गांव के सन्टुआ से फंसल हैलै अब इ सब करके हिंया से भागे ले चाहो है..।’’ 

यह बात गांव में लफंगबा के नाम से प्रसिद्ध सरोवर सिंह ने कही तो परवतिया बौखला गई-
‘‘ हां, हां, छिनार तो हम हैइए हीए! तोरा से करबा लेतिए हल तो बड़की सति-सावित्री हो जइतिए हल, तो हीं ने तीन बार हमर छाती पकड़ के पटके के प्रयास कैलहीं हें और तीनों बार करारा जबाब मिललै, रंडीबजबा।’’
पुलिस पुछताछ कर लौट आई, पूरे गांव में किसी ने परवतिया के पछ में बयान नहीं दिया। जिसने भी गवाही दी सबने कहा कि बांझ है और छिनार भी...। परवतिया पुलिस जीप से ही थाने लौट आई। अब वह उस घर में एक पल भी नहीं रहना चाहती। कड़ाके के ठंढ के बाबजूद उसका शरीर जल रहा था। उसके आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे। और वह पूराने ख्बाबों में खो गई।

शेष अगले अंक में.... अगले सप्ताह..



02 अक्तूबर 2013

दम तोड़ रही है गांधी जी के पंचायती राज का सपना।

शेखपुरा (बिहार) / अरूण कुमार साथी

गांव का चहुमुखी विकास ही गांधी जी का अंतिम सपना था और उन सपनों को जमीन पर उतारने को लेकर बड़े बड़े दाबे भी किए जाते है पर हकीकत बिल्कुल उल्टा है। गांधी जयंती को लेकर आज जिन जिन पंचायतों में ग्राम सभा की बैठकंे होनी थी वहीं कहीं तो हुई ही नहीं कहीं तो मजह औचारिकता की गई।

आज जगदीशपुर, केवटी और कुटौत में ग्राम सभा की बैठक किया जाना था। इसको लेकर जगदीशपुर पंचायत के किसी गांव में इसकी सूचना तक नहीं दी गई। जगदीशपुर निवासी अरिवन्द्र प्रसाद कहते है कि गांव के लोगों को इसकी कोई सूचना ही नहीं दी जाती है। मुखिया अपने समर्थकों के साथ चुपचाप बैठक करते है जिसपर अधिकारी हस्ताक्षर कर देते है। वहीं सोभानपुरा निवासी संजय सिंह कहते है कि ग्राम सभा बैठक की सूचना ही नहीं दी जाती है और रोजगार सेवक और प्रोग्राम पदाधिकारी की मिली भगत से सब गोल-माल कर लिया जाता है।
इसी तरह कुटौत पंचायत में आज बैठक किया जाना था पर किसी को सूचना ही नहीं दी गई और जिसको सूचना मिली वे बैठक का इंतजार करते रह गए। इसको लेकर सरपंच अर्जी देवी कहती है कि उनको किसी माध्यम से आज ग्राम सभा की बैठक होने की सूचना मिली थी पर वह दिन भर बैठक का इंतजार करती रह गई और बैठक नहीं हुई यदि फाइलों पर हो गई हो तो नहीं कहें। 

इसी प्रकार राकेश कुमार की माने तो ग्राम सभा की बैठक कभी कुटौत पंचायत में की ही नहीं जाती।
वहीं इस संबंध में सीओ रविशंकर पाण्डेय कहते है कि केवटी पंचायत में ग्राम सभा की बैठक में वे मौजूद थे जबकि बीडीओ ईश्वर दयाल खुद नाराजगी जाहीर करते हुए कहते है कि प्रचार प्रसार के आभाव की वजह से जगदीशपुर में कम लोग ही जुटे।

वजह चाहे जो हो पर गांधी जी का सपना गांव की ग्राम सभाओं में ही दम तोड़ती नजर आती है।


12 सितंबर 2013

दंगों की राजनीति और जाल में फंसता आम आदमी

मुजजफरनगर दंगा को लेकर कल आज तक पर 30 एवं 31 सितम्बर का लगे मजमे का विडियो क्लिप दिखाया गया तो साफ लगा कि दंगा नेताओं के भड़काने की वजह से ही फैला है। 30 तारीख को नमाज के हुए मजमें में बसपा सांसद कादर राणा, सपा नेता राशिद सिददकी एवं कांग्रेस के नेता सईद उर जमा भड़काउ तकरीर दे रहे थे। वहीं 31 को हुए मजमे में भाजपा से जुड़ी साध्वी प्राची ने भड़काउ भाषण दिया। पुण्य प्रसून बाजपेई जी के इस बहस में सभी पार्टियों के नेता मौजूद थे पर इनकी ढिठई भी इस हद तक सामने आई की मन मसोस कर रह गया। बाजपेई जी ने सीधा सवाल किया कि आपके नेता गिरफ्तार होने चाहिए की नहीं, भाजपा को छोड़ किसी पार्टी के नेतओं ने इसका सीधा जबाब नहीं दिया। वही वहस, भाजपा दंगों को भड़का रही है।

यही तो है दंगों की हकीकत! हम दंगों की राजनीति करते है! अब जरा देखिए, मंत्री आजम खान  मुजजफरनगर के प्रभारी मंत्री है और उनके चरित्र को दुनिया जहान के लोग जानते है। दंगों की राजनीति के योद्धा। पहले तो मामुली विवाद को हवा दी और जब  आग लग गई तो खामोशी से तामाशाबीन बन भाजपा-भाजपा चिल्लाते रहे। और हद तो तब हो गई जब पानी सर से उपर जाने लगा तो सपा की बैठक का बहिष्कार कर अपने ही सरकार को घेरने की नौटंकी करने लगे।

इसी दंगा के मुददे पर मदनी साहब जैसे तथाकथित मौलवी भी मीडिया से रूबरू हुए। देखा की एयरकंडीशन कमरे मे बैठकर भाषण झाड़ रहे है। पर इन मुस्लिम नेताओं की एक बात बड़ी तकलीफदेह रही। सभी नेता सरकार को इस लिए कोस रहे थे कि वह मुस्लमानों को सुरक्षा देने में नाकाम रहीं, न कि इस लिए कि वह दंगा रोकने में नाकाम रही...।

यह एक बड़ा सवाल है। मुस्लिम के बुद्धिजीवियों को शायद ही कहीं यह कहते सुना गया है कि दंगा नहीं होना चाहिए बल्कि हमेशा वह यही कहते है कि सरकार मुस्लिमों को सुरक्षा नहीं दे पाती है। यहीं से शुरू होता है सरकार और राजनीति दलों को तुष्टीकरण की नीति जिसकी वजह से आम आदमी मारे जाते है। मदनी शरीखे लोग एसी में बैठे रहते है और घर जलता है गरीबों का।

यहां मैं थोड़ा एक पक्षीय होना चाहता हूं। इसलिए नहीं कि हिन्दू हूं, बल्कि इसलिए कि जहां हिन्दूओं में कुछ कटटपंथी नेता और साधू हैं तो वहीं उनका विरोध करनेवाले उनसे अधिक है। वह चाहे अशोक सिंहल हो या तोगड़िया या नरेन्द्र मोदी, हम अपना विरोध दर्ज कराते है, पर मुस्लमानों में यह नहीं देखी जाती और यदि कोई होगें तो मैं नहीं देखा पाया...।

सवाल यही उठता है कि आखिर कब तक हम अपनों का लहू उस ईश्वर या अल्लाह के नाम पर बहाते रहेगें जो कि एक है....। कब तक हम नेताओं के जाल में फंसते रहेगें...। बिहार हो या युपी या कोई अन्य प्रदेश सरकार हमेशा कहती है कि दंगों में भाजपा का हाथ है, तो फिर सरकार किस लिए है, हाथ चाहे जिस किसी का भी वह इस देश का मुजरिम है और जो देश की अखण्डता और एकता को तोड़ना चाहता है उसे सलाखों के पीछे पहूंचाए। पर कार्यवाई के नाम पर महज राजनीति करेगें और कहेगें कि हम सेकुलर है..। 

जो भी हो पर दंगों में मरता और उजड़ता तो गरीब ही है और इस दंगे के सहारे राजनीति करने वाले मगन रहते है, हों भी क्यों नहीं, मुस्लिम हितैषी पार्टियों के 60 साल के शासन में मुस्लमानांे की गरीबी नहीं मिटी...और इस बात को मुस्लमान समझ भी नहीं पाते...। मैं अक्सर सोंचता हूं कि दलितों को मिलने वाला आरक्षण मुस्लमान के गरीब (हलखोर आदि) जातियों को क्यों नहीं मिला, तो जबाब कोई नहीं देता ......और इसलिए ही शायद बाजपेई जी को आजतक पर हो रही गलथेथरी (बहस) को बीच में ही रोक देना पड़ा और भाजपा के नेता दंगों की राजनीति का एक मात्र काठ की हांडी बारबार चुल्हे पर चढ़ा रहे है...। जो भी हो पर यह गेम तो सभी पार्टियों के बीच फिक्स नजर आती है और आम आवाम की कराह इसी में दब जाती है...

10 सितंबर 2013

मार्मिक पल... जब वरिष्ठ पत्रकार शोक सभा में रो पड़े....


बरबीघा के श्री नवजीवन अशोक पुस्तकालय में युपी में आईबीएन7 पत्रकार राजेश वर्मा की हत्या पर शोक सभा का आयोजन किया गया था। इसमें सभी पत्रकार जुटे और अपनी अपनी वेदना रखी। 

इस इस शोक सभा में बोलते बोलते बरिष्ठ पत्रकार डा. दामोदर वर्मा रो पड़े... उनके आंसू तब छलक पड़े जब उन्होंने अपने जैसे ग्रामीण पत्रकारों की उपेक्षा और अपनी आर्थिक तंगी के बीच समाचार भेजने के संधर्ष का जिक्र किया। डा. वर्मा दैनिक हिन्दुस्तान में पिछले 35 साल से रिर्पोटर है....अपने अध्यक्षीय संबोधन में बीच में ही रोते हुए बैठ गए....

उन्होने कहा कि कैसे 10 प्रति न्यूज पर काम करते हुए पत्रकारिता के लिए संधर्ष किया जा रहा है और फिर किसी प्रकार का दुखद पल आने पल आने पर मीडिया घराना उनकी सुध तक नहीं लेता। और तो और जिस समाज के लिए एक पत्रकार सर्वस्व न्योछावर कर देता है वहीं समाज जरूरत पड़ने पर उनके लिए कुछ नहीं करता....

31 अगस्त 2013

निराशा राम बनाम मौन मोहन बाबा उर्फ संत असंत तू काको जान

मैंने अपने दस साल के बेटे टुन्नालाल से कुछ मुहावरे को समझाने के लिए कहा और उसने उसी तरह से झटका दिया जैसे रूपया आजकल दे रहा है। उसने दो दुनी दो बराबर दो निकाल कर यह समझा दिया कि निराशा राम और मौन मोहन सिंह जी दोनों एक दूसरे के पूरक है। पहले जो बहस हुई जरा देखिए, मैने सवाल पूछा, एक तो चोरी उपर से सीना जोरी? तो जबाब मिला मौन मोहन सिंह ने कहा कि दूसरे देश का विपक्ष पीएम को चोर नहीं कहता। फिर सवाल किया, उल्टे चोर कोतवाल को डांटे? जबाब मिला, सुप्रिम कोर्ट के निर्णय पर खांग्रेसी नेताओं ने कहा कि न्यायालय को भी अपनी सीमा में रहना चाहिए।

अजब गजब जबाब दे रहे हो यार, मैंने डांट लगाई तो उल्टा वही भड़क गया जैसे आजकल निराशा राम भड़के हुए है। खैर मैंने फिर सवाल दागा, चोर चोर मैसेरे भाई? जबाब दिया, राजनीतिक दल को आरटीआई के दायरे में लाने पर सभी दलों ने विरोध किया।
लो कल लो बात!

खैर, अबकी बार एक देहाती कहावत दाग दिया, अच्छा बताओ, चलनी दूसे बढ़नी को? जबाब फिर वहीं झटका बाला, भ्रष्टाचार के मुददे पर विपक्ष ने सदन नहीं चलने दिया। सवाल, खेत खाये गदहा, मार खाए जोल्हा? जबाब मिला? जबाब, बेचारे मौन मोहन सिंह। अच्छा बंदर के हाथ में नारियल? जबाब दिया आजकल न्यूज चैनल वालों कों नहीं देख रहें है.....।
अच्छा बताओ जले पर नमक छिड़कना? जबाब दिया, एंटोनी जी ने सदन में कहा कि पाक सेना के भेष में कुछ आतंकी ने सेना के जवान की हत्या की। फिर सवाल किया, दूध के दांत न टूटना? जबाब मिला, राहुल बाबा के अभी दूध के दांत नहीं टूटे है।  
और अन्त में कुछ और कठिन सवाल करते हुए कबीर दास जी के दोहे को समझाने के लिए कहा.. 

साधू ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं।
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं।।

जबाब मिला, तब तो एक भी साधू अपने यहां नहीं मिलेगें। यहां तो निराशा राम जी पान फूल को छेड़ने की जगह तोड़ रहे है। और फिर उसने भी कुछ कबीर बानी सुना दी...और कहा कि आप ही फैसला कर लो, निराशा राम संत है कि हमारे मौन मोहन बाबा....जय हो जय हो....

साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल।
परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल।।

मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल संत।
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दंत।।

सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़।
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर।।

बोली ठोली मस्खरी, हंसी खेल हराम।
मद माया और इस्तरी, नहीं सन्तन के काम।।

और कबीरवाणी को सुन मैं तो असमंजस में पड़ गया संत के ये सारे गुण निराशा राम में है या मौन मोहन बाबा में समझ नहीं आ रहा, आपही फैसला कर दिजिए.... 

आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान।
हरष शोक निंदा तजै, कहै कबीर संत जान।।

.जय हो जय हो....




25 अगस्त 2013

रिर्पोटर, वेश्या और धोबी का कुत्ता..

रेप से जीवन खत्म नहीं हो जाता! एक तरफ जब मुंबई में रेप पिड़ित महिला पत्रकार ने यह बात कही तो इससे उसके अन्दर के जज्बे को समझा जा सकता है। समाज के लिए जीने का यह जज्बा ही किसी को एक पत्रकार बनाता है। उसे बुराईयों के खिलाफ निहथ्था लड़ने-भिड़ने का साहस देता है।
दूसरी तरफ युपी के पत्रकार राकेश शर्मा की सीएम के गृह जिले में गोली मार कर हत्या कर दी जाती है। मीडिया और समाज उस तरह रिएक्ट नहीं करते जिस तरह युपी के एक डीएसपी के मरने पर किया या किसी सेना के शहीद होने पर...।

     यही सवाल मन को मथने लगता है। आखिर किसके लिए और क्यों? हमलोग रोज रोज किसी माफिया और पुलिस प्रशासन से टकराव मोल लेते है। कहीं किसी दलित की आवाज बनतें है तो कहीं जुर्म को बेनकाब करते है, पर क्यों? क्या चंद सिक्कों के लिए? पर सिक्के भी कहां मिलते है? नामी गिरामी अखबार हो या चलंत टाइप, उसके लिए हमारे जैसे रिर्पोटर की हैसियत धोबी के कुत्तों की तरह ही है। जब मन हुआ एक आध रोटी का टुकड़ा फेंक दे दिया, बात खत्म। तभी तो अखबार दस रूपये प्रति न्यूज के हिसाब से आज भी ज्यादातर रिर्पोटरों को मेहनताना देता है और कभी कभी फोटो छप गया तो तीस से पच्चास रूपये। और न्यूज चैनल, नेशनल हो तो उसके लिए सर्वोसर्वा प्रदेश की राजधानी का रिर्पोटर ही महत्व रखता है। जिला रिर्पोटर की खबर पर वह लाखों का वेतन लेता है बाकि जिले वालों के लिए उसके पास बस साल में कुछ स्टोरी के हिसाब से पैसे है और लोकल चैनल तो बस, साल दो साल तक करार के बाद भी पैसा नहीं देते और चूं चपड़ किया तो निकाल बाहर!

    और समाज! जिसके लिए जीने मरने का हम दंभ भरते है वह भी हमें अपने सारोकार की चीज नहीं समझता। उसे लगता है कि हम यह सब अपने मीडिया हाउस के नौकरी के लिए कर रहे है, बस!
बाकि बचा पत्रकारों का भ्रष्टाचार, तो जो जयचंद टाइप मित्र है वह भी कुछ खास नहीं कर पाते। अपने पेट्रोल जला कर यदि किसी नेता लीडर को कवर कर खुश कर दिया तो उनसे कुछ चंद सिक्के मिल जाएगें या फिर दलाली करने वाले मित्र भी दाल रोटी की जुगाड़ से आगे नहीं निकल पायें है। ज्यादा से ज्यादा घर में एलसीडी और फ्रिज सहित बाहरी चकमक कर पाते है, अंदर से खोखला ही। बाकि उनके बिकाउ होने का ढोल ऐसे पीटा जाएगा जैसे दुनिया का सबसे भ्रष्ट वहीं हो।

उदाहरण देखिए। मेरे यहां नगर पंचायत के द्वारा दो करोड़ का टेंडर होना था। सभी ठेकेदारों ने एक दबंग के ईशारे पर मैनेज कर पूरे रेट पर टेंडर भरा, जो पन्द्रह प्रतिशत कम पर भरने वाले थे उसे भगा दिया। एक मित्र को भनक लगी तो पहूंच गए। कैमरा खोला, चमकाया और बैठ गए कुर्सी पर। काफी हिला-हबाला के बाद पांच सौ का एक गांधी जी थमा कर उनको चलता कर दिया गया। जिन्हांेने मैनेज किया वहीं मेरे पास आकर शिकायत भरे अंदाज में कहते है फलांना तो काफी भ्रष्ट है, एक दम से अड़ गया, जब पांच का पत्ता दिया तब खिसका। हद है भाई, दो करोड़ के टेंडर में पन्द्रह प्रतिशत के हिसाब से तीस लाख का बारा न्यारा किया और एक रिर्पोटर को पांच सौ क्या दिया तो सबसे खतम वही हो गया? कई उदाहरण है....खैर।
बात यहीं खत्म नहीं होती। अब तो संपादक जी भी बैठक में कहते है कि रिर्पोटरों की पहचान तो बैनर से ही। दरोगा जी कुर्सी देते है, यह शान किसके पास है?

बात तो सही ही लगती है, साफगोई से कहूं तो शायद अब अपने अहंकार की तुष्टि ही एक मात्र कारण नजर आता है। या फिर अपने खबर को देखने का एक सुख भी है जो स्खलन सुख की ही तरह शकून से भर देता है वरना यदि बच्चों के भविष्य और घर के चुल्हे की सोंचू तो रातों को नींद नहीं आती लगता रहता है कि मर-हेरा गया तो कोई बड़ा सा बीमा भी नहीं कराया, क्या होगा परिवार का.....। ईमानदारी का तंमगा अपने मन में टांगे रहे और पेट में पाव भर अनाज के बिना भी छाति अकड़ा कर जीते रहे... बस।

हम लोगों के लिए न तो मजदूरी का कानून है, न ही मानवाधिकार। मीडिया घराने हमारा शोषण करते है और हम उफ् तक नहीं कर पाते, ठीक कोठे पर बैठे उस वेश्या की तरह जिसके रूप-श्रृंगार के जलबे का मजा तो जवानी में सब लूटते है पर उसके अंदर की तकलीफ चकाचौंध की दुनिया में खो सी जाती है। उसके आंसू अंदर ही अंदर बहते है और उसकी मुस्कान पर दुनिया फिदा हो जाती है.... हाय....


20 अगस्त 2013

सूखे खेतों को देख सोंच रहा हूं कि आजादी के 67 साल बाद भी किसानों के लिए कोई जमीनी योजना क्यों नहीं है?


     सावन की पुर्णिमा हो गई और धान की खेती करने वाले किसान उदास। खेतों में दरारे फटी हुई है और हजारों खर्च कर तैयार बिचड़ा जानवरों का हरा चारा बन रहा है। आसमान की ओर टकटकी लगाए किसान महीनों बारिस का इंतजार करते रहे पर न तो बारिस आई और न ही नदियों में पानी। मेरे शेखपुरा जिले के आसपास के कई जिले इस बार सुखाड़ की चपेट में है और आजादी के 67 साल बाद भी किसानों को लेकर वही वातानुकुलित ऑफिस में बैठ कर कानून बनाने का सिलसिला जारी है।
मैं दुनिया जहान की बातें नहीं करूगा, अपनी बात करूंगा। आज सूखा क्षेत्र घोषित करने के लिए किसान की आवाज तक उठाने वाला कोई नहीं है। मेरे जैसे छोटे किसान ने आठ हजार खर्च किए बिचड़े गिराने में पर मौसम की मार ने बस बेकार कर दिया। 
कविवार घाघ कह गए कि-
‘‘सावन माह बहे पुरबईया।
बेचे बरदा, खरदो गैया।।’’
कि यदि सावन माह में पुरबईया हवा बहती है तो किसान बैल को बेच कर गाय खरीद ले क्योंकि तब धान होने की उम्मीद नहीं रहती है। इस साल ऐसा ही हुआ है। पूरे सावन पुरबईया बयार चलती रही। खंधा का खंधा परीत रह गया। 
पर ऐसा हुआ क्यों? क्योंकि आज भी हम सिंचाई के लिए मौसम पर निर्भर है। हमारे पास अपना कोई साधन नहीं है। इसके लिए पूरी की पूरी व्यवस्था जिम्मेवार है। हमारे यहां आज भी आजादी के आसपास में बने नलकूप ही है जो इस बात को तस्दीक करते है कि उस समय की सरकरों ने मूल चीज को सुधारने पर ध्यान दिया था पर आज 95 प्रतिशत नलकूप बेकार है। हां, फाइलों पर सभी चल रहे है। यदि आज नलकूप सही होते तो धान के खेतों में भी हरियाली होती जबकि इस मद में प्रतिवर्ष अरबों खर्च हो रहे है।

वहीं एक बड़ी समस्या यह है कि आज जो धान का बिचड़ा हम खेतों में डाल रहे है वह हाइब्रीड है जिसका परिणाम यह एक माह का बिचड़ा हो जाने के बाद वह खेत में लगाने लायक ही नहीं रहता जबकि पुराने समय में धान के बिचड़े को एक माह बाद भी खेतों में रोपा जाता था। आज वह मूल धान जिसमें मेरे यहां सीता, मंसूरी, कनक, सोनम, बासमती सहित अनेक बेराइटी थी, सब बिलुप्त हो गई। सरकार और कृषि बैज्ञानिकों ने हाईब्रिड धान की वैज्ञानिक खेती पर बल दिया जिससे आज मूल धान का बिचड़ा किसी किसान के पास नहीं मिलता या कम मिलता है। अब यदि बड़ी बड़ी कंपनियां हाईब्रिड धान का बिचड़ा देना बंद कर दे तो क्या होगा?

इसी तरह सुखाड़ को देखते हुए सरकार ने महज डीजल अनुदान देने की घोषणा करी है जो कि उंट के मुंह में जीरा का फोरन है। वह भी जो किसान ब्लॉक आना जाना करते है उन्हें ही मिलेगा। 

कुल मिलाकर यह कि आजादी के इतने सालों बाद भी हम केवल यह कहने को ही कहते है कि भारत कृषि प्रधान देश है और सत्तर प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है पर उन सत्तर प्रतिशत किसानों के लिए कोई भी योजना जमीन पर नहीं है और हमारे जैसे किसान सोंच रहे है कि इतनी मंहगाई में चावल खरीद कर खाना कैसे सम्भव हो सकेगा या कि जब कोई किसान आत्महत्या करेगा तब उसके दर्द को केवल मीडिया बेचेगी.....

15 अगस्त 2013

हे भारती देखो तुम










हे भारती देखो तुम,
कैसे अपने ही आज लूट रहे,
कैसे आतंकी धर्मभेष में छूट रहे।

हे भारती देखो तुम,
कैसे, गांधी की टोपी आज लुटेरों के सर पर है,
कैसे आज फांकाकशी भगत सिंह के घर पर है।

हे भारती देखो तुम,
आज कैसे जनता की नहीं है चलती,
देखो, कैसे रक्षक ही अस्मत को मलती।

हे भारती देखो तुम,
कैसे अन्नदाता पेट पकड़ कर सो जाते,
और कहीं पिज्जा खा खा कर कारोबारी नहीं अघाते।

हे भारती देखो तुम
अब गंधारी का ब्रत त्याग करो,
एक बार फिर तुम लक्ष्मीबाई का रूप धरो।

अपने ही देश में तिरंगा पराया हो जाएगा।


किसने सोंचा था

‘‘केसरिया’’

आतंक के नाम से जाना जाएगा?

‘‘सादा’’

की सच्चाई गांधी जी के साथ जाएगा?

‘‘हरियाली’’

के देश में किसान भूख से मर जाएगा?


और

कफन लूट लूट कर स्वीस बैंक भर जाएगा?


किसने सोंचा था

लोकतंत्र में
गांधीजी की राह चलने वाला मारा जाएगा।
?

आज भी भगत सिंह फंसी के फंदे पर चढ़़ जाएगा।
?

किसने सोंचा था

भाई भाई का रक्त बहायेगा।
?

देश के सियाशत दां आतंकियों के साथ जाएगा?

अपने ही देश में तिरंगा पराया हो जाएगा।

और हमारा देश
शान से
आजादी का जश्न मनाएगा।


जय हिंद।

11 अगस्त 2013

अब गीत नहीं गाती है गोरैया.....


बहुत से लोगों ने बचपन में गीत गाती गोरैया को देखा होगा... हीरा मोती बैल की जोड़ी और नीलकंठ... बहुत कुछ था बचपन में पर अब सबकुछ खोता जा रहा है..इसी को शब्द दिया है मैंने... थोड़ा सा रूक कर पढ़ें और कुछ कहें... 



अब मुंडेर पर अतिथि के आने की
सूचना लेकर कागा नहीं आता....
अब बाबू जी नहीं लाते धान की बाली
जिसे गीत गाते हुए फोंकती थी गोरैया..
अब छत पर सूखते अनाज अगोरने
नहीं कहती है मां....
अब मकई के खेत में भी
बाबू जी नहीं बनाते है मचान
जिस पर बैठकर उड़ता रहता था
झुंड के झुंड  आते सुग्गों को...
अब श्राद्ध में पितरों को तर्पित
भात खाने वाले चिंड़य-चुनमुन
न जाने कहां खो गए.....
अब मुद्राखोर चील भी न जाने कहां रहता है
जैसे नाराज हो
हमे सड़ाध की सजा दे रहा है....
अब घर से बाहर निकलने पर
नीलकंठ को उड़ा कर
जतरा नहीं बना पाते बाबू जी....
अब तो रंग बिरंगी तितली को देख
पूछती है बेटी
पापा यह कहां मिलेगी......
अब तो सावन में झूले लगाने के लिए
नहीं मिलता है पीपल का दरखत...
अब मां भी
बटवृक्ष और आंवले की पूजा के लिए
बोनासाई घर लाने के लिए कह रही है...
अब हीरा-मोती की कहानी कैसे लिखेगें
प्रेमचंद......
अब खेत में कौन करेगा
हरमोतर......
अब गौ माता को पूजने कहां जाएगी
बहुरिया....
और कहां से आएगा
ठाकुरजी बनाने के लिए
देशी गाय का गोबर....

अब तो मेरे गांव में भी रोती है मैना
रो रहे हैं तोंते
हुंआ हुंआ कर कर
रो रहा है सियार

जैसे कह रहा है-
‘‘हे भगवान यह आदमी क्यों बनाया
जो तेरी दुनिया में ही विनाश लेकर आया।’’

03 अगस्त 2013

मोदीगिरी-द डिजास्टर मनेजमेंट बनाम अंधों में काना राजा

आउल बाबा परेशान है! ई कौन सा जादू हो गया कि कल तक आउल आउल चिघारने वाले आज नमो नमो मंत्र का जाप करने लगे! कितना सबकुछ किया, कभी दलित के घर जाकर भोजन किया तो भी भीड़ में जाकर लोगों से बतियाया फिर भी...?
आउल बाबा परेशान, अपने कई विदेश के मित्रों से सलाह ली पर किसी ने उचित सलाह नहीं दी। एक दिन उसे एक मित्र ने सलाह दी। मोदीगिरी-द डिजास्टर मनेजमेंट सीखने की। आलउ बाबा ने दिल्ली से लेकर इटली तक ढुंढ़वा लिया कहीं इसका फंडा नहीं मिला। कैसे एकाएक पानी पी पी कर गरियाने वाला मीडिया आज नमो नमो कर रहा है?
नाराज बाबा ने मम्मी से शिकायत की, मोदीगिरी सीखना है। मम्मी जी ने भी अपने सभी पूराने नेताओं को बुलबा लिया। बताओ, मोदीगिरी....।
आखिर क्या हुआ कि सब नमो नमो करने लग गया। किसी ने कहा कि सब कॉपोरेटों का कमाल है, उसी की फंडिग से सारा खेला हो रहा है। किसी ने इसे निक्कर का कमाल बता दिया। वहीं अपने डुग्ग डुग्गी राजा ने सबसे एक कदम आगे बढ़कर इसे अमेरिका की साजिश करार दे दिया। इतना सुनते ही मैडम जी उखड़ गई। ‘‘आपसब को कुछ पता तो होता नहीं बस अमेरिका अमेरिका बोल देते है, अरे उसकी सारी योजनाओं को हम लागू कर ही रहे है फिर वह नमो के साथ क्यूं जाएगा?’’ प्रेट्रोल-डीजल लोग कम खरीदें इसके लिए उसी के ईशारे पर दाम बढ़ाए। हथियार भी उसी से खरीदा?’’ फिर।
धंटो मंथन के बाद किसी के हाथ कुछ नहीं लगा। आउल बाबा परेशान! तभी मैडम का मोबाइल बज उठा। स्क्रीन पर नमो का नाम उभरा। सब अचंभित। मैडम जी वहां से उठ कर किनारे में चली गई, बतियाने। ‘‘हलौ, देखिए आप डुग्ग डुग्गी जैसों को थोड़ा समेटिये, बड़ी मुश्किल से इस मंहगाई और भ्रष्टाचार को किनारे लगाया है। देखे न मेरा फंडा। और हां ई बाटला हाउस पर गेम उलटा पर गया जी। फिर भी अभी ईशरत जहां का मामला है।
थैंक्यू, थैंक्यू, मैडम जी लगातार बोली जा रही थी और अन्त में बोली- ‘‘थैंक्यू नमो जी, आप नहीं होते मंहगाई और भ्रष्टाचार पर चुनाव लड़ने में दोनों को घाटा हो जाता है। अब देखिए सब का पत्ता साफ कर दिया। बाकई आपने बेस्ट पॉलिसी खोज निकाला। थैंक्यू।।’’
उधर से जब मैडम जी आई तो सबकी आंखों में एक सवाल था, जबाब में मैडम ने सिर्फ इतना कहा कि यह हाई लेबल पौलटिक्स है तुम नहीं समझोगे। तुम लोग थोड़ा सावधानी से नमो पर बार करो और हां ध्यान रहे हम केवल धर्म की राजनीति करेगें इधर उधर कोई नहीं भटेका।
मैं क्या करता? सब कुछ चुप चाप सुनता रहता हूं। कौन यह कह कर माथा दरद मोल ले कि नमो की तरह बनने के लिए पहले आम होना पड़ेगा, बीआईपी नहीं? जमीन पर जाकर काम करना होगा आउल बाबा, नौटंकी नहीं?
और अन्त में मेरे मुंह से पता नहीं कैसे निकल ही गया ‘‘ अजी जानते नहीं है आप लोग कि कैसे अपने आउल बाबा देश की गंभीर समस्याओं पर भाग खड़े होते है और जब मंहगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी, भुखमरी की समस्या रहेगी तो इसी तरह से अंधों में काना राजा बनता ही रहेगा.....’’

18 जुलाई 2013

‘‘खिचड़िया माल’’ के नाम से मिलता है मिड डे का नकली और सस्ता सामान।

‘‘खिचड़िया माल दिजिए’’ किराना दुकान में यदि ऐसे वाक्य सुनने को मिले तो कोई भी समझ जाता है कि यह मिड डे मिल का सामान मांग रहा है। मिड डे मिल मंे गुरूजी की ज्यादा से ज्यादा बचाने की ललक में वह सब कुछ हो रहा है जिसके परिणामतः सारण में बीस बच्चों की जान चली गई।
किराने की दुकान में मिलने वाला खिचड़िया माल में रंग मिली हुई हल्दी तथा मिर्च की गुंडी मिलती है तो धनिया के गुंडी में घोड़े की लीद मिली होने की बात जगजाहीर है। वहीं मसूर की दाल की जगह गुरूजी खेंसारी एवं मटर की दाल का ही प्रयोग करते है। सोयाबीन भी पिल्लू युक्त और सड़ा गला रहता है जिसमें आटा की मिलावट रहती है तो सब्जी मंडी में सड़ी गली सब्जी को दुकानदार फेंकने की जगह मास्टर साहब के लिए रख देते है और ये सारा सामान पच्चास से सत्तर प्रतिशत तक सस्ता मिलता है।
मिड डे मिल में लूट खसोट और लापरवाही की पराकाष्ठा है। आयोडाइज्ड नमक को बच्चों के बुद्धी बढ़ाने वाला माना जाता है पर गुरूजी साधारण नमक ही खरीदते है। वहीं गरम मशाला, गोलकी-जीरा का महज वाउचर ही गुरूजी लेते है इसकी खरीद कभी नहीं होती। यही हाल आलू का भी है। बाजार में सड़ने के कगार पर पहूंचे आलू को मास्टर साहब दुकानों से खोज कर खरीदते है।
मीड डे मिल का गोलमाल यहीं पर खत्म नहीं होती। किसी भी स्कूल में नामांकन से चालिस से पच्चास प्रतिशत से अधिक उपस्थिति नहीं होती पर मिड डे मिल के लिए रजिस्टर पर नब्बे से सौ प्रतिशत उपस्थिति बनाई जाती है। धाल मेल यह कि स्कूलों में चावल स्पलाई करने वाले ठेकेदार प्रति बोरा दस किलो चावल कम देते है वह भी घटिया भी और फाइल में यदि दस बोरा की आपुर्ति स्कूल के लिए है तो स्कूल तक पांच बोरा ही पहूंचता है बाकि का पैसा गुरूजी के पास पहूंच जाता है।
नाम नहीं छापने के शर्त पर एक शिक्षक ने बताया कि प्रति सौ बच्चा 100 से 150 रूपये का ही खर्च गिरता है जिसमें सब्जी से लेकर दाल और मशाला सब शामिल है वहीं वाउर 365 से 500 रू0 का बनता है। एक प्रभारी तो बड़ी दिलेरी से कहते है कि मिड डे मिल की वजह से वे कभी अपने वेतन के बैंक खाते की ओर नहीं देखते।
इस बंदरबांट में प्रति स्कूल से मासिक नजराना भी बंधा हुआ है इस संबंध में दुर्गा प्रसाद धर की माने तो प्रति स्कूल प्रति सौ बच्चा 500 से 800 रू0 मासिक नजराना बंधा है और इसमें नीचे से उपर तक सभी पदाधिकारी पैसा खाते है।
वहीं रालोसपा के प्रदेश उपाध्यक्ष शिवकुमार ने कहा कि इस मिड डे मिल योजना मास्टर और पदाधिकारियों के लूटने के लिए चालाई जा रही है और सारण की घटना पर सीएम को माफी मांगनी चाहिए।
बहरहाल इस पूरी व्यवस्था को बिना बदले मिड डे मिल में सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती और पूरी व्यवस्था में बदलाव की इच्छा शक्ती शायद ही हममें है।

आंकड़े
शुद्ध सामान की कीमत/किलो खिचड़िया माल की कीमत/किलो
मसूर दाल 56-60 खेंसारी दाल 26-30
हल्दी गुंडी 110-120              रंग युक्त 55-65
मिर्च गुंडी 110-120            रंग युक्त 55-65
धनिया गुंडी 80-90 मिलावटी 30-40
सोयाबीन बरी 65-75 मिलावटी 45-50
आयोडीन युक्त नमक 16 साधारण नमक 05
करूआ तेल 95-100 मिलावटी 70-75
हरा सब्जी 15-20        सड़ी गली 05-08


17 जुलाई 2013

बाबा रामदेव के चेले की काली करतूत

बाबा रामदेव के चेले की काली करतूत अभी अभी सामने आई है। बिहार के शेखपुरा जिले के बरबीघा बाजार में किराना की दुकान चलाने वाले एक चेले ने लोगों से नौकरी लगाने के नाम पर लाखों की ठगी की है। खबर है कि ठगी के शिकार हुए लोग रोज उनके दुकान और घर पर जाकर हंगामा कर रहे है। वहीं उनके द्वारा एनआईओएस में परीक्षा पास कराने के नाम पर भी दस दस हजार की बसूली की गई है।
समारोहों से लेकर चाय दुकान तक साहब भ्रष्टाचार को लेकर इतना लंबा फेंकते है कि एकबारगी लगता है गांधी जी भूत इनमें ही समा गया हो....जनाब ने दिल्ली तक जाकर बाबा जी के आंदोलन में भी हिस्सा लिया है।
अब इनके सहारे बाबा जी देश से भ्रष्टाचार मिटाने की बात करते है तो परिणाम क्या होगा समझा जा सकता है।

11 जुलाई 2013

मां बाप पर बोझ है बेटी! राजस्थान से आकर नवालिग से शादी रचा रहा युवक गिरफ्तार।



‘‘बियाह नै करे ले चाहो हियै सर? आज भोरे पता लगलै की बियाह होतै। केकरा से बियाह हो रहलै हैं हमरा नै पता है?’’ यह कहना है रिंपल की। आजादी के इतने सालों बाद और मानव विकास तथा नारी सशक्तीकरण के दावों के बीच रिंपल एक यथार्थ है हमारे समाज और उसके पिछड़ेपन की।
रिंपल शेखोपुरसराय थाना के जीयनबीघा गांव की रहने वाली है और तीन साल पहले ही उसने पांचवी तक पढ़ाई करने के बाद स्कूल जाना छोड़ दिया। रिंपल की उम्र अभी मुश्किल से तेरह साल होगी और आज रिंपल की शादी होने वाली थी वह भी राजस्थान के चालिस वर्षिय युवक के साथ पर एसपी मीनू कुमारी की पहल पर पुलिस ने शादी से पहले ही कुसेढ़ी के पंचवदन स्थान से युवक को हिरासत में ले लिया।
यह त्रासदी नहीं तो और क्या है कि रिंपल के माता पिता इस शादी में शरीक नहीं हो रहे थे और बभनबीघा निवासी उसके जीजा दिलीप राम पीला धोती पहन और हाथ-पैर रंग कर कन्यादान करने के लिए तैयार था।
यह समाज का पिछड़ापन और जगरूकता की कमी ही है कि लड़की के जीजा कहते है कि गरीब की बेटी है सर किसी तरह निवह जाना है। आलम यह है कि लड़का कहां का रहने वाला है और किस जाती का है यह भी लड़की के परिजनों को पता नहीं है पर लड़की का निवाह करना था सो शादी कर रहे थे।
पुलिस की हिरासत में लिए गए युवक ने अपना नाम महिपाल सिंह यादव बताया वहीं अपना पता राजस्थान के अलवर जिले के कोर्ट कश्मीरी बता रहा है। युवक से बरबीघा थाना के प्रभारी थानाध्यक्ष सत्येन्द्र शर्मा एवं इंस्पेक्टर अरूण शुक्ला पूछ ताछ कर रहे है जिसमें इस बिन्दू पर भी नजर रखा जा रहा है कि कहीं शादी के बहाने युवक मानव तस्करी का करोबार तो नहीं करता।
वहीं इस संबंध में थानाध्यक्ष ने बताया कि एसपी के आदेश पर लड़की का मेडिकल जांच कराया जाएगा और इसके बाद जो तथ्य सामने आएगें उसी के हिसाब से कार्यवाई की जाएगी। इस सारे घटनाक्रम को देख कर सोंच रहा हूं कि क्या मां बाप पर बेटी बोझ है! और यदि है तो इसके लिए हमहीं जिम्मेवार भी है...

16 जून 2013

एक ही झटके में खलनायक हो गए नीतीश कुमार......

अरूण साथी
अभी कुछ ही महीने पहले तक नीतीश कुमार वैसे नायक की तरह उभरे थे जिन्होंने जंगलराज को सुशासन में बदल दिया था। देश ही नहीं दुनिया भर में इसकी चर्चा हो रही थी और बिहार का आम आवाम चैन से रहने लगा था। विपक्ष के पास कोई मुद्दा ही नहीं था सरकार को घेरने का। पर एक ही झटके में छद्म धर्मनिरपेक्षिता का ऐसा भूत नीतीश कुमार के सर पर सवार हुआ कि वे आवाम की नजरों में खलनायक हो गए।
राजनीति में अतिमहत्वाकांझी होने में कोई बुराई नहीं है क्यों राजनीति करने वालों को हमेशा से यही सिखाई जाती है पर नीतीश कुमार को बिहार के जनमानस को भांप कर कदम उठाना चाहिए था।
इससे पुर्व भी बिहार में रामविलास पासवान और लालू प्रसाद ने छद्म धर्मनिरपेक्षिता का स्वांग रचा था। रामविलास ने कुछ माह बचे होने पर केन्द्रिय मंत्रीमंडल से गोधरा कांड को लेकर इस्तीफा दे दिया और लालू प्रसाद ने आडवानी का रथ रोका और उन्हें गिरफ्तार किया। इतना ही नहीं लालू प्रसाद ने पोथी-पतरा जलाने का काम किया और पंडितों को अपमानित किया। सबक जनता ने सिखाया। आज दोनों राजनीति के हासिये पर चले गए। 
वही लालू प्रसाद आज पूजा-पाठ से लेकर मंदिरों में माथा टेकते फिर रहे है! मेरा कहने का मतलब यह कि धर्मनिरपेक्षिता का मतलब मुस्लमानों के तुष्टीकरण के लिए स्वांग करना नहीं होता? धर्मनिरपेक्षिता का मतलब सभी धर्मों के प्रति निरपेक्षता से होता है न कि मुस्लिम धर्म के प्रति सापेक्षिता से।
आज पूरे देश की राजनीति मुस्लमानों के तुष्टीकरण और वोट बैंक की राजनीति के इर्द गिर्द घूम रहा है। अखिलेश सरकार पुलिस के द्वारा जान पर खेल कर पकड़े गए कई आतंकवादियों से मुकदमा उठाने की राजनीति करते है तो कांग्रेस जम्मू कश्मीर में मारे गए आतंकियों के परिजनों को मुआवजा देने की ऐलान करती है। मतलब देश से बड़ा वोट बैंक हो गया....
इन सबसे एक कदम आगे बढ़ कर नीतीश कुमार ने नरेन्द्र मोदी का विरोध कर दिया। वह भी तब जब दंगे कराने के आरोपी मोदी को केन्द्र की एसआईटी ने बरी कर दिया और कोर्ट ने अभी तक दोषी नहीं माना है। और कानूनी पचड़े अलग भी जब गुजरात में दंगा हुआ तो नीतीश कुमार केन्द्र में मंत्री बने रहे। मोदी के साथ इनके अच्छे संबंध जगजाहीर है। फिर एकाएक प्रधानमंत्री बनने की अतिमहत्वाकांक्षा ने सब गुंड़ गोबर कर दिया और अंजाम के तौर पर विकास की राह पर चल पड़े बिहार की गाड़ी को  ब्रेक लग गया। सत्तरह साल पुराना गठबंधन टूट गया। कल तक जनता की मार से पस्त पड़े लालू प्रसाद दहाड़ने लगे। सरकार के विरोधी जश्न मनाने लगे है और यह सब वोट बैंक की राजनीति और मुस्लमानों के तुष्टीकरण के लिए किया गया जो की दुखद है।
गुजरात में जो हुआ वह निश्चित ही दुर्भाग्यपुर्ण था पर इस पर जो राजनीति हो रही है वह भी कम दुर्भाग्यपुर्ण नहीं। दंगे में चाहे जो भी मरे वह हिन्दु हो या मुस्लमान पहले इंसान है। गोधरा में रेलयात्रियों के जलाने पर खामोशी और गुजरात के दंगों पर हाय तौबा....बहुत सालती है। और फिर नरेन्द्र मोदी ही अकेल खलनायक कैसे? पिछले कुछ माह पुर्व युपी में लगातार दंगे हुए है जिसे मीडिया ने भी दबा कर रखा, वह क्या था? और अभी हाल में ही आसाम में हुए दंगे पर खामोशी क्यों? क्या कांग्रेसनित सरकार को दंगा कराने का लाइसेंस है? बात यह कि मुस्लमानों के तुष्टीकरण के नाम पर दोगली राजनीति से देश का भला नहीं होगा। यदि गुजरात में मुस्लमान आज नरेन्द्र मोदी को वोट दे रहे है तो जरा उनसे भी तो कोई पूछे?
इतने सालों के बाद गुजरात दंगे का परत दर परत खुलता भी गया है। जाकिया जाफरी, सितलबाड़ सहित कई अन्य इस राजनीति खेल में नंगे हुए है। 
आज देश की जनता कांग्रेसनित सरकार के त्रास से त्राण चाहती है और मोदी एक चेहरा के तौर पर उभरे जहां एक उम्मीद दिखी और बस इसलिए देश नमो नमो करने लगा और नीतीश कुमार सौतनिया डाह की तरह जल-भुंज कर ओलहन-परतर देकर कलह शुरू कर दिया। देहाती कहावत भी है घर फूटे गंवार लूट, तब लूटने वाला जश्न मना रहा है और लूटाने वाले को इसका एहसास नहीं...