29 मई 2013

नक्सलवाद?

     नक्सलबाद आज भी एक गंभीर समस्या है और यह समस्या तब लोकतंत्र पर हमला के रूप में प्रतिपादित हो गया जब एक साथ कई कांग्रेस के नेताओं की हत्या कर दी गई। प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी और राहूल गांधी दौड़े दौड़े छतिसगढ़ की राजधानी रायपुर पहूंच गए?

        पर यह समस्या तब लोकतंत्र पर हमला नहीं बन सका था जब 74 अर्धसौनिक बलों को मार गिराया गया? तब भी नहीं बना जब पंचायत लगाकर सरेआम लोगों को मारा जाता है? तब भी नहीं बना जब सरकारी संरक्षण में सलवा जुडूम होता रहा और उसकी आड़ में सौंकड़ों आदिवासियों को मार गिराया गया, महिलाओं से सरेआम बलात्कार किया गया? यह खेल लाख चिल्लाने के बाद भी सरकार ने तब तक नहीं रोका जब तक सुप्रिम कोर्ट ने आदेश नहीं दिया! यह समस्या तब तक उतनी गंभीर नहीं बन सकी जब विनायक सेन जैसे डाक्टर को देशद्रोह का आरोप लगा कर जेल में ठूंस दिया गया। तब भी यह समस्य गंभीर नहीं बनी जब सोनी सोढ़ी जैसों को यंत्रणा दी गई और वह भी इतना अमानवीय की उनके योनी में पत्थर ठूंस दिया गया!

           हमारी दोहरी और दोगली नीति का खुलासा इसी से होता है। मैं मानता हूं कि नक्सली निश्चित रूप से पथ से भटक गए है। और ऐसा मानने के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता कि इसके संस्थापक कानू सान्याल ने ही पिछले वर्ष इसके पतन की पटकथा लिखते हुए कहा था कि नक्सलबाद को खत्म कर देना चाहिए यह पथ से भटक गया। 

        नक्सलियों के भटकाव की फेहरिस्त बड़ी लम्बी है जिसमें बड़े बड़े नक्सली कमांडरों का अकूत दौलत जमा करना, महिला नक्सलियों का शारीरिक शोषण करना, आदिवासियों के विकास की योजनाओं को जमीन पर उतरने में बाधा पहूंचाना, और यदि लेवी मिले तो बड़ी बड़ी कम्पनियों के साथ मिलकर काम करवाना या संरक्षण प्रदान करना। आदिवासियों के कल्याण के लिए कोई भी योजना नहीं चलाना आदि इत्यादि।

इस सब के बाद भी नक्सलबाद के मूल में हमारी व्यवस्था ही दोषी है। कैसे इस लोकतांत्रिक देश में देश का पच्चीस प्रतिशत पूंजी का हिस्सा महज 100 अरबपतियों के हाथ में जमा है? यह पूंजीवादी व्यवस्था का छलावा है कि जीडीपी ग्रोथ के सहारे सरकार चलती है और यह खेल इस प्रकार चलता है कि अरबों कमाने वालों को पच्चास रूपया देहाड़ी कमाने वाले और भूखे सो जाने वाले सबको एक साथ जोड़ कर ग्रोथ निकाल दिया जाता है और उसकी कमाई भी...?

      कैसे इस देश में करोड़ों का घोटाला  हो जाता है और हम डकार तक नहीं लेते? कैसे इस देश में एक अदना सा सिपाही आम आदमी या औरत तक को मां बहन एक कर देता है? कैसे इस देश में विकास को पन्द्रह पैसा ही जमीन पर उतरता है? कैसे इस देश में नौकरशाही मानसिकता राजशाही की तरह व्यवहार करती है? कैसे इस देश में 223 विधायक में 203 करोड़पति होते है? कैसे इस देश में चौथाखम्भा तक दबे कुचलों की आवाज नहीं बन पाता? कैसे इस देश में न्याय तक पैसे के दम पर सरेआम बिकती है? कैसे इस देश में अपनी पत्नी को एक उधोगपति 400 करोड़ का आशियाना गिफ्ट में देता है? 

बहुत सवाल है और गुस्सा भी बहुत! जब भी नक्सली किसी को मारते है तो हम चिल्ला चिल्ला कर कहने लगते है कि हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं पर हम फिर से उसी हिंसा के रास्ते पर चलने लगते है? जब दंतेबाड़ा में 74 अर्धसैनिक मरे थे तो क्या वे जंगल में किसी की पूजा करने गए थे? और तब प्रधानमंत्री वहां क्यों नहीं आए थे? क्या चंद कांग्रेसी नेताओं से कम कीमती थी उनकी जान...? या सलवा जुडूम चलाने वाले को यह नहीं पता था कि हिंसा का जबाब हिंसा भी हो सकता है? बात तो वही हो गई कि तुम करो तो रास लीला हम करें तो कैरेक्टर ढीला?

     नक्सलवाद पर किसी भी प्रकार की नीति बनाने से पहले जरा इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि कैसे छतिसगढ़ में महेन्द्र कर्मा के साथ रहे एक डाक्टर का यह कहने पर कि मैं एक डाक्टर हूं और बस्तर में सेवा कार्य कर चुका हूं नक्सलियों ने उन्हें न सिर्फ छोड़ दिया बल्कि पानी पिलाई और जख्मों पर मलहम पटटी करते हुए इंजेक्शन तक दिया.....

याद है मुझे जहानाबाद की जेल ब्रेक की घटना, कैसे नक्सली शहर में घूम घूम कर लाउडीस्पीकर से यह ऐलान कर रहे थे कोई अपने घरों से न निकले, हमारी लड़ाई आम आदमी से नहीं है....

नक्सलियों ने छतिसगढ़ में मारे गए निर्दोषों के लिए खेद प्रकट किया तो क्या प्रधानमंत्री भी सलवा जुडूम के लिए खेद व्यक्त करेगें...

खैर! नक्सलियों में आए भ्रष्टाचार, भटकाव और पूंजीवाद के बाबजूद उनको जनसमर्थन मिलता है  इसका मूल कारण यह है कि हामरे तंत्र में जनता के सेवक का भाव नहीं बल्कि शासक का भाव है और जबतक यह भाव रहेगा नक्सलबाद खत्म नहीं किया जा सकता। नक्सलबाद को खत्म करने के लिए सबसे पहले इन्हें खत्म करना होगा...

19 मई 2013

लालू और नीतीश के दौर के बिहार का बेसिक अंतर


अरूण साथी
परिवर्तन रैली में लालू प्रसाद यादव ने किसी भी परिवर्तन का संकेत नहीं दिया। अनुमान भी यही थी। हां एक नई बात जरूर हुई कि इसी बहाने परिवारवाद की पुरानी परंपरा का बीजारोपन कर दिया गया। 
फिर भी यदि राजद को बिहार का सबसे मजबूत विपक्ष कहा जाय (हलांकि उसके पास विपक्ष का मानक दस प्रतिशत मत का आधार भी नहीं है)  तब समूचे भाषण में नीतीश कुमार पर बार करने के लिए विपक्ष के पास काई मुददा नहीं था (कुछ को छोड़ कर)।
बात यदि व्यक्तिगत रूप से नीतीश कुमार की करें तो विपक्ष एक भी घपले-घोटाले का आरोप उनपर नहीं लगा सका! न ही उनपर वंशवाद की राजनीति का आरोप लगा सकते! न ही उनकी सरकार पर किसी प्रकार के बड़े घोटोले का आरोप लग सके! और तो और बिहार का विकास नहीं हो रहा या नहीं हुआ, यह भी नहीं कह सके। बिहार में अपराधियों का बोल बाला है और नरसंहार और अपहरण इसकी पहचान है यह भी बोलने के लिए नहीं रहा! बिजली की बदतर स्थिति पर भी बच बचा कर ही बोले!
ले देकर नीतीश कुमार को घेरने के लिए उनकी शराब नीति और नियोजित शिक्षक सहित भ्रष्टाचार मुददा बना। और एक वही पुराना और घिसा पिटा राग की नीतीश आरएसएस की गोद में है।
बात यदि व्यक्तिगत रूप से नीतीश कुमार की करें तो उनके विपक्षी भी उनकी ईमानदारी पर शक नहीं कर सकते। कभी उनके मित्र रहे और विपक्षी बने एक नेता ने कहा कि नीतिश कुमार अपनी छवि को लेकर सतर्क रहते है। वर्तमान राजनीति में यह सबसे बड़ी बात है। आज जहां जितनी बड़ी कुर्सी उतना ही लूट खसोट की राजनीति हो रही हो तो इस चीज को बचा कर रखना किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं।
बात यदि बंशवाद की करें तो नीतीश कुमार इससे कोसों दूर है। इस दौर में जहां साले से लेकर भांजा तक की चांदी कटने लगती है इससे बचना कोई हंसी ठठ्ठा नहीं।
और बात यदि घोटाले की करें तो आठ साल में किसी बड़े घोटाले का आरोप विपक्ष का नहीं लगा सकना बिहार की राजनीति में आठवें आश्चर्य से कम नहीं। हां एसी डीसी बिल और वियाडा सहित कुछ घोटाले की बात उठी थी पर उसकी हवा निकल गई है।
बात बिहार के विकास की हो तो यह बिहार में रहने वाला विपक्ष भी महसूस कर रहा है। लालू प्रसाद अपने समय में सड़क मार्ग से बिहार का दौरा कर लेते यह सपने की बात थी। बिहार के अस्पताल में मरीजों की भीड़ गवाह होती है कि अस्पताल डाक्टर रहते है कुत्ते नहीं।
और अपराध की चर्चा करने की लालू प्रसाद हिम्मत भी नहीं कर सकते। वह भी दौर था जब अपहृत आदमी मंत्री जी के घर पर रखे जाते थे और यह भी दौर है जहां आम आदमी शकून से जी रहा है। संगठित अपराधी गिरोह का दौर बिहार से उसी प्रकार से गायब हो गया जैसे गदहे के सर से सिंग। एक दौर वह भी था कहीं हर जिले में दादा, सरदार का आतंक था। नरसंहार पर राजनीति होती थी। मरने वालों की पहचान उनकी जात से होती थी और मुख्यमंत्री जाति के आधार पर शवों का सौदेबाजी करती थी। इसी बिहार ने उस दौर को देखा है जहां गांव के गांव विधावाओं के कारूनिक क्रन्दन से आज भी कराह रहा है। इस बिहार में आज यह साहस कोई करने की हिम्मत नहीं कर सकता और यदि कर दे तो उसको सलाखों के पीछे जाना तय है।
भ्रष्टाचार उस दौर में भी थी आज भी है पर अंतर साफ दिखाई देता है। उस दौर के भ्रष्टाचार में ब्लॉकों और थानों में दलालों की चांदी कटती थी। एक चोर तक को थानों से छोड़ देने के लिए साधू-सन्यासियों का फोन आ जाते थे। आज कुर्ता-पैजामा बाले दलाल घर में बैठ कर या विपक्ष के साथ जा कर सरकार को कोस रहे है। राजनीति में विधायकों और सांसदों के आगे पीछे करने वाले ठेकेदार खत्म हो गया। पार्टी के साथ रहने वाले कार्यकर्त्ता ही आगे पीछे रहते है।
 घोटालों का वह दौर कि सड़क सड़क के फाइलों पर बन जाते थे और जानवरों का चारा खाने वाले हाथी पर चढ़ कर जेल जाते थे जिससे प्रेरित होकर राजनीति, गुण्डागर्दी और रंगदारी करते हुए जेल जाना शानो शौकत की बात हो गई थी। गांव गांव में रंगदारों की धाक होती थी और उनके रिश्तेदार से पूछा जाता था कि फलां आदमी क्या करता है तो वह शान से कहता था ‘‘रंगदार’’ है! कहां गया वह दौर। कोई रंगदार सामने तो आये।
हां अपराध खत्म नहीं हुआ है, हो भी नहीं सकता। अपराध आज भी हो रहे है पर अपराधियों की जगह जेल होती है। अपराध की घटना होने पर पुलिस ऐसे पागलों की तरह उसके पीछे दौड़ती है जैसे किसीने सांढ को लाल कपड़ा दिखा दिया है। 
हां भ्रष्टाचार एक मुददा है पर यह भी उस दौर का नहीं जहां किसी की कोई नहीं सुनता था। आज यदि थानेदार पैसा मांगता है तो एसपी के पास जाने पर उसकी फटने लगती है। बीडीओ के भ्रष्टाचार की शिकायत पर डीएम कार्यवाई करते है। उच्च स्तर का भ्रष्टाचार भी खुलेआम नहीं होता और भ्रष्टाचारी को निगरानी दबोच भी रहे है। 
और अभी कल ही हमेशा सरकार के विरोध में ट्विट करने वाले पटनावासी गौरव सिंह ने ट्विट किया किया कि आज के दौर में कम से कम एक जाति विशेष के लोग (उन्हांेने जाति का नाम लिखा था) मारे तो नहीं जा रहे, नरसंहार तो नहीं हो रहा? जिनको आज की सरकार से तकलीफ है वे बारा और सेनारी जाकर देख ले?
और यह राजनीति का रंग ही है कि कल नीतीश कुमार को नियोजित शिक्षकों के नाम पर यह कह कर गलियाने वाले कि अनपढ़ लोगों को मास्टर बना दिया आज नियोजित शिक्षकों को नियमित करने की बात करते है।
यही बेसिक फर्क है नीतीश और लालू की सरकार में। आज मुझे भी शिकायत है कि गांव गांव शराब की दुकाने खोल दी गई, नियोजित शिक्षक गुणवत्तापुर्ण शिक्षा नहीं दे रहे। बिजली बारह से सोलह घंटा ही रहती है। दरोगा जी बिना पैसा के एफआईआर नहीं लेते बगैरह बगैरह। पर यह शिकायत उसी बदले बिहार के मानसिकता से निकलती है जिससे हमारी अपेक्षाऐं बढ़ गई है। हम सौ प्रतिशत नया बिहार चाहते हैं।

रही बात पुर्वाग्रही लोगों की तो लोकतंत्र है और यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा है सो अपना अपना विचार है और मैं हमेशा से वर्तमान सरकार को उनकी खामियों को लेकर घेरता रहा हूं पर इसका मतलब यह नहीं कि परविर्तन की राजनीति के तहत जंगलराज में जाने को उत्सुक हो जाउं क्योंकि जिन्हें उस दौर का बिहार याद होगा उनके लिए यह उत्सुकता आत्महत्या के समान ही लगेगी।