12 सितंबर 2013

दंगों की राजनीति और जाल में फंसता आम आदमी

मुजजफरनगर दंगा को लेकर कल आज तक पर 30 एवं 31 सितम्बर का लगे मजमे का विडियो क्लिप दिखाया गया तो साफ लगा कि दंगा नेताओं के भड़काने की वजह से ही फैला है। 30 तारीख को नमाज के हुए मजमें में बसपा सांसद कादर राणा, सपा नेता राशिद सिददकी एवं कांग्रेस के नेता सईद उर जमा भड़काउ तकरीर दे रहे थे। वहीं 31 को हुए मजमे में भाजपा से जुड़ी साध्वी प्राची ने भड़काउ भाषण दिया। पुण्य प्रसून बाजपेई जी के इस बहस में सभी पार्टियों के नेता मौजूद थे पर इनकी ढिठई भी इस हद तक सामने आई की मन मसोस कर रह गया। बाजपेई जी ने सीधा सवाल किया कि आपके नेता गिरफ्तार होने चाहिए की नहीं, भाजपा को छोड़ किसी पार्टी के नेतओं ने इसका सीधा जबाब नहीं दिया। वही वहस, भाजपा दंगों को भड़का रही है।

यही तो है दंगों की हकीकत! हम दंगों की राजनीति करते है! अब जरा देखिए, मंत्री आजम खान  मुजजफरनगर के प्रभारी मंत्री है और उनके चरित्र को दुनिया जहान के लोग जानते है। दंगों की राजनीति के योद्धा। पहले तो मामुली विवाद को हवा दी और जब  आग लग गई तो खामोशी से तामाशाबीन बन भाजपा-भाजपा चिल्लाते रहे। और हद तो तब हो गई जब पानी सर से उपर जाने लगा तो सपा की बैठक का बहिष्कार कर अपने ही सरकार को घेरने की नौटंकी करने लगे।

इसी दंगा के मुददे पर मदनी साहब जैसे तथाकथित मौलवी भी मीडिया से रूबरू हुए। देखा की एयरकंडीशन कमरे मे बैठकर भाषण झाड़ रहे है। पर इन मुस्लिम नेताओं की एक बात बड़ी तकलीफदेह रही। सभी नेता सरकार को इस लिए कोस रहे थे कि वह मुस्लमानों को सुरक्षा देने में नाकाम रहीं, न कि इस लिए कि वह दंगा रोकने में नाकाम रही...।

यह एक बड़ा सवाल है। मुस्लिम के बुद्धिजीवियों को शायद ही कहीं यह कहते सुना गया है कि दंगा नहीं होना चाहिए बल्कि हमेशा वह यही कहते है कि सरकार मुस्लिमों को सुरक्षा नहीं दे पाती है। यहीं से शुरू होता है सरकार और राजनीति दलों को तुष्टीकरण की नीति जिसकी वजह से आम आदमी मारे जाते है। मदनी शरीखे लोग एसी में बैठे रहते है और घर जलता है गरीबों का।

यहां मैं थोड़ा एक पक्षीय होना चाहता हूं। इसलिए नहीं कि हिन्दू हूं, बल्कि इसलिए कि जहां हिन्दूओं में कुछ कटटपंथी नेता और साधू हैं तो वहीं उनका विरोध करनेवाले उनसे अधिक है। वह चाहे अशोक सिंहल हो या तोगड़िया या नरेन्द्र मोदी, हम अपना विरोध दर्ज कराते है, पर मुस्लमानों में यह नहीं देखी जाती और यदि कोई होगें तो मैं नहीं देखा पाया...।

सवाल यही उठता है कि आखिर कब तक हम अपनों का लहू उस ईश्वर या अल्लाह के नाम पर बहाते रहेगें जो कि एक है....। कब तक हम नेताओं के जाल में फंसते रहेगें...। बिहार हो या युपी या कोई अन्य प्रदेश सरकार हमेशा कहती है कि दंगों में भाजपा का हाथ है, तो फिर सरकार किस लिए है, हाथ चाहे जिस किसी का भी वह इस देश का मुजरिम है और जो देश की अखण्डता और एकता को तोड़ना चाहता है उसे सलाखों के पीछे पहूंचाए। पर कार्यवाई के नाम पर महज राजनीति करेगें और कहेगें कि हम सेकुलर है..। 

जो भी हो पर दंगों में मरता और उजड़ता तो गरीब ही है और इस दंगे के सहारे राजनीति करने वाले मगन रहते है, हों भी क्यों नहीं, मुस्लिम हितैषी पार्टियों के 60 साल के शासन में मुस्लमानांे की गरीबी नहीं मिटी...और इस बात को मुस्लमान समझ भी नहीं पाते...। मैं अक्सर सोंचता हूं कि दलितों को मिलने वाला आरक्षण मुस्लमान के गरीब (हलखोर आदि) जातियों को क्यों नहीं मिला, तो जबाब कोई नहीं देता ......और इसलिए ही शायद बाजपेई जी को आजतक पर हो रही गलथेथरी (बहस) को बीच में ही रोक देना पड़ा और भाजपा के नेता दंगों की राजनीति का एक मात्र काठ की हांडी बारबार चुल्हे पर चढ़ा रहे है...। जो भी हो पर यह गेम तो सभी पार्टियों के बीच फिक्स नजर आती है और आम आवाम की कराह इसी में दब जाती है...

10 सितंबर 2013

मार्मिक पल... जब वरिष्ठ पत्रकार शोक सभा में रो पड़े....


बरबीघा के श्री नवजीवन अशोक पुस्तकालय में युपी में आईबीएन7 पत्रकार राजेश वर्मा की हत्या पर शोक सभा का आयोजन किया गया था। इसमें सभी पत्रकार जुटे और अपनी अपनी वेदना रखी। 

इस इस शोक सभा में बोलते बोलते बरिष्ठ पत्रकार डा. दामोदर वर्मा रो पड़े... उनके आंसू तब छलक पड़े जब उन्होंने अपने जैसे ग्रामीण पत्रकारों की उपेक्षा और अपनी आर्थिक तंगी के बीच समाचार भेजने के संधर्ष का जिक्र किया। डा. वर्मा दैनिक हिन्दुस्तान में पिछले 35 साल से रिर्पोटर है....अपने अध्यक्षीय संबोधन में बीच में ही रोते हुए बैठ गए....

उन्होने कहा कि कैसे 10 प्रति न्यूज पर काम करते हुए पत्रकारिता के लिए संधर्ष किया जा रहा है और फिर किसी प्रकार का दुखद पल आने पल आने पर मीडिया घराना उनकी सुध तक नहीं लेता। और तो और जिस समाज के लिए एक पत्रकार सर्वस्व न्योछावर कर देता है वहीं समाज जरूरत पड़ने पर उनके लिए कुछ नहीं करता....