30 दिसंबर 2014

हिन्दू तालिबानी













अगर हम चुप रहे तो
एक दिन यहां भी
मार दी जाएगी गोली
मलाला को...

अब वो कहते हैं
रोटी मत मांगों,
मत मांगो
हक
सच की अभिव्यक्ति का...

और अंधविश्वास को
मान लो,
मान लो
उस भगवान को
जिसने की थी
हत्या गांधी की
और गोडसे की मंदिर में
करो प्रार्थाना,
मिले साहस
"हे राम"
कहते हुए
आदमी के सीने में
गोली मारने की...

और अब वही लोग कर रहे है
प्रयत्न
मार देने का
सत्य, अहिंसा, प्रेम और
सर्व धर्म समभाव की विचारधारा को....

और ऐसे में हम सब को डरा रहे है वो
हे भारतपुत्र
लाज बचाना
इन हिन्दू तालिबानियों से
डर मत जाना...
डर मत जाना...

एक पत्रकार का अपहरण (आपबीती)--अंतिम कड़ी { पुरानी यादें / नए दोस्तों के लिए }

दिसम्बर की सर्द रात को कोहरे ने अपने आगोश में ले लिया था और हमारे प्राण को अपराधियों ने अपने आगोश में। जिंदगी और दोस्ती की बाजी में मैंने जिंदगी को दांव पर लगा दिया। मैं उसे यह समझाता रहा है कि हमलोग पत्रकार है और हमारा अपहरण करने से कोई फायदा नहीं होगा। जान भी मार दोगे तो क्या मिलेगा? फिर बॉस ने अपने एक साथी को बुलाकर हमें मारने का आदेश दिया। 
‘‘चलो काम खत्म करो यार, कहां ढोते रहोगे। खत्म कर दो यहीं।’’
 देशी पिस्तौल की ठंढी नली कनपटी पर आकर सटी तो मेरे जैसे अर्ध-आस्तिक के पास भी ईश्वर को याद करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। हे भोला। जीवन के अच्छे-बुरे कर्म तरेंगन की तरह आँखों के आगे नाचने लगे। बुरे कर्मों को अच्छे कर्मों से संतुलित करने लगा पर पलड़ा बुरा का आज शायद भारी था इसलिए तो मौत सामने खड़ी थी और मैं जिंदगी से हिसाब किताब कर रहा था। खुद के बारे में सोंचने लगा। परिवार का क्या होगा? किसी का सहारा भी तो नहीं। एक छोटा भाई है बस। किसी तरह की जमा पूंजी तक नहीं। ईश्वर को याद करता हुआ उनसे बतियाने लगा। जैसे कि वह सामने हो और सब कुछ उनकी मर्जी से हो रहा हो। अपने अच्छे कर्म की दुहाई भी देता तब बुरे कर्म सामने आ जाता। देवा। शायद मौत के आगोश में ही जिंदगी की हकीकत सामने आती है। गीता का वचन, कर्म प्रधान विश्वकरि राखा याद आने लगा। कोई जैसे पूछ रहा था . 
‘‘बताओ क्या किया इतने दिनो’’ और मैं जबाब दे रहा है। इसी तर्क वितर्क में कट की आवाज ने बुरे कर्म की प्रधानता बता दी, गया, पर नहीं, यह पिस्तौल के बोल्ट के चढ़ाने की आवाज थी।  
‘‘रूको’’, बॉस की यह आवाज जैसे ईश्वर का आदेश हो। 
‘‘चलो इसको लेकर चलते है।’’ सफर फिर से प्रारंभ हो गया। सर्दी की यह कंपकंपा देने वाली रात आज डरावनी नहीं लग रही थी और न ही अब मौत का डर लग रहा था। पता नहीं क्यों मौत की आगोश में होने के बाद उसका डर खत्म सा हो गया था या यूं कहें कि सोंच लिया था कि जब मरना ही है तो मरेगे, पर मैंने जिंदगी का दामन नहीं छोड़ा। ऐसे समय में आचार्य रजनीश की बातें याद आने लगी।  
‘‘मौत तो सुनिश्चित समय पर एक बार आनी तय है इसलिए उसके भय से बार बार नहीं मरना।’’ और मैं फिर मौत से बतियाने लगा। 
‘‘काहे ले हमरा अर के मारे ले कैलो हो, जिंदा रहबो त कामे देबो।’’ मैं समझाने के विचार से बोला। 
‘‘की काम देमहीं।’’ बातचीत प्रारंभ, मैं यह समझाने की प्रयास करने में सफल हो रहा था कि हमलोग समाज से तुम्हारी तरह ही लड़तें है। अन्याय का विरोध करते है। सफर में बातचीत का सिलसिला चलते चलते लगा जैसे दो मित्र आपस में बात कर रहे हो। मैं मनोविज्ञान के लिहाज से उसका आत्मीय होने का प्रयास करने लगा। फिर एकएका मुझे कंपकंपी लगने लगी। हाफ स्वेटर पर ठंढ बर्दास्त नहीं हो रही थी औंर मैं कंपाने लगा। तभी मेरे देह पर एक चादर आ कर रखा गया।  
‘‘ ला ओढ़ो, हम कोट पहनले हिए।’’ बॉस से युवक ने अपने देह से चादर उतार कर मेरे देह रखते हुए कहा। देवा। मौत को भी संवेदना होती है? और बोलते बतियाते हमलोग चलते रहे। इस बीच सभी का व्यवहार अब पहले जैसा नहीं रहा, थोड़ आत्मीय हो गया। रास्ते में कहीं झाड, तो उंचे उंचे टीले मिले। हमलोग चलते जा रहे थे। तभी रास्ते में बड़ी सी नदी मिली। सब मिलकर पार करने की सोंचने लगे। 
‘‘पानी अधिक नहीं है पार हो जाएगें।’’ एक ने प्रवेश कर देखते हुए कहा। फिर जुत्ता, मौजा हाथ में और हमलोग पानी मे।  नदी में पानी कम और कीचड़ ज्यादा दी। भर ठेहूना कीचड़ में धंसता हुआ जा रहे थे। उस पार, दूर एक गांव के होने का आभास हुआ। कुत्तों ने भौंकना प्रारंभ कर दिया था। थोड़ी ही दूर चलने पर नदी के अलंग पर ही एक धान का खलिहान मिला। हमलोग वहीं बैठ गए। कारण हमलोगों से ज्यादा उसमें से एक की हालत ठंढ से ज्यादा खराब थी। सब लोग वहीं बैठ गए। आलम यह कि उपरी तौर पर हमलोग आपस में धुलमिल गए थे। बोल-बतिया ऐसे रहे थे जैसे वर्षों पुराना मित्र। उनलोगों को विश्वास में ले लिया कि यदि मुझे छोड़ दिया तो किसी प्रकार का खतरा नहीं होगा। पुलिस को भी कुछ नहीं बताएगे।  फिर उसमें से एक ने मचिस निकाली और नेबारी लहका दिया। सब मिलकर आग तापने लगे। फिर थोड़ी देर के बाद बॉस ने कहा कि चलो मुखिया जी से चलकर आदेश ले लेते है कि क्या करना है, मारना है कि छोड़ना है। और फिर दो साथी उस गांव की ओर चल दिए जिधर से कुत्तांे के भौंकने की आवाज आ रही थी। दो ने अपने हाथ में पिस्तौल निकाल लिया,  
‘‘कोई होशियारी नै करे के, नै ता जान यहां चल जइतो।’’ 
‘‘नै नै होशियारी की, जे तोरा करे के हो करो, हमरा ले भगवान तोंही हा, मारे के मारो, जियाबे के हो जियाबो।’’  फिर धीरे धीरे आग लहकता रहा और सबकी आंखों में नींद नाचने गली। दोनों अपराधियों को नींद ने अपने आगोश में ले लिया। एक की पिस्तौल वहीं रखी हुई थी। पर मैं बेचैन हो रहा था। मेरे मन में यहां से भागने का ख्याल आने गला। पिस्तौल को अपने कब्जे में लेकर यहां से भाग सकते है? पर मेरे मन की यह बात यहीं दबी रह गई। मेरे मित्र मनोज जी के खर्राटे की आवाज ने मेरे अरमानों पर पानी फेर दिया। यदि मैं भागने की या इनको जगाने की कोशीश करता हूं तो यह लोग भी जाग जाएगें और फिर खेल खत्म.....
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दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंढ और रात भर खुले आसमान में मीलों चलने के बाद कैसी हालत होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। जिंदगी और मौत से जद्दोजहद में आज न आग प्यारी लग रही थी और न ही ठंढ सता रही थी। हमेशा दिमाग में तरह तरह के ख्याल आते रहते और यूं ही सोंचते हुए करीब एक धंटा बीता होगा तब जाकर दोनों मुखिया से मिलकर लौट आए। आते ही दोनों साथियों को जगाया और अलग हटकर खुसुर-फुसुर करने लगे। फिर सरदार ने आकर हमसे बात की। मैंने खर्राटे ले रहे मित्र को जगाया और सरदार की बोलने की टोन बदली हुई थी। वह हमदोनों को समझाने लगा। 

‘‘देख भाय, जे होलौ उ मनेजर के गफलत में, हमसब ओकरा उठावे बला हलियो पर एक नियर गाड़ी होला से गड़बड़ हो गेलो, सेकरा से अब जे होलो से होलो, छोड़ तो देबौ पर पुलिस के चक्कर में मत फंसाईहें।’’ समझ गया कि छोड़ने का मन बना लिया है पर कहीं पुलिस के पास न चला जाउं इसलिए डर रहा है। मैं फिर उससे अत्मियता दिखाते हुए बतियाने लगा। 
‘‘देखो दोस्त, हमरा ले तों भगवान हा और हम पुलिस के पास काहे जाइबै, तो की कैला हमरा।’’ मैं उसे विश्वास दिलाने लगा कि मैं पुलिस को उसके बारे में कुछ नहीं बताउंगा और न ही किसी प्रकार की उससे नाराजगी है। यह करते कराते काफी समय बीत गया। उसे हमदोनों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। फिर मैंने मनोज जी को टहोका और उन्हांेने ईसारा समझ उसे भरोसा दिलाने लगे कि जो हो हमलोग आपके साथ रहेगे।  फिर समय आया भरत मिलाप का। विदाई का वक्त ऐसा भारी पड़ा जैसे राम को जंगल छोड़ने के समय भरत पर भारी पड़ा हो। सचमुच हमसब भावुक हो गए थे। वे सब हमे छोड़ने वाले थे, यह विश्वास हो गया था फिर भी हम यहां से जल्दी निकल जाना चाहते थे। अब समय था जुदा होने का और इस समय मैं भावनाओं को रोक नहीं सका। विश्वास ही नहीं हो रहा था हमलोग जिन्दा  घर जानेवाले है। मैं रोने लगा। फूट फूट कर रोने लगा। और फिर सरदार से लिपट गया। वह भी भावों में बह गया। रोने लगा। फिर मनोज जी भी भावुक हो गए। हमलोग बारी बारी सबसे गले मिल लिए।
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हमलोग वहां से जाने लगे। थोड़ी दूर बढ़ा ही था कि ‘‘रूको’’ की आवाज सुनाई दी। फिर से डर गया। हमलोग रूके तो सरदार ने आकर कहा कि 
"उसके साथी आपके पैसे लेने के लिए कह रहे है। क्या करे वे लोग नहीं मान रहा। साला कमीना छोड़ने के लिए बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ है। मैं तो यह नहीं कर सकता इसलिए जो जेब में थोड़ी बहुत हो तो दे देंगें तो उनलोगों को तसल्ली हो जाएगी।"  फिर मनोज जी ने उपर की जेब से जो भी रखा था निकाल दे दिया। फिर उसने उनके घड़ी की तरफ ईसारा किया और उन्होने घड़ी  निकाल कर दे दिया। मैंने भी वहीं किया जो भी जेब में था, दे दिया। मनोज जी के उपरी जेब में चार सौ और मेरे पास सौ रूपये थे। दोनों वहां से निकल गए।  वहां से निकलने के बाद भी यकीं नहीं हो रहा था कि उन्हांेने हमें छोड़ दिया है। लगता रहा कि पीछे से आऐगें और गोली मार देगें। धुप्प अंधेरे में चलता जा रहा था। न रास्ते का पता चल रहा था, न किसी गांव का। रास्ते में कोई चीज खड़ी होती तो लगता वही लोग खड़े है।
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खैर करीब एक धंटा चलने के बाद कुत्तों के भौंकने से यह आभास हो गया कि आसपास एक गांव है और हमलोग उधर ही चल दिए। कुछ दूर चलने के बाद एक गांव मिला। हमलोग घरों का दरबाज खटखटाने लगे पर किसी ने दरबाजा नहीं खोला। पूरा गांव घूम गया। अंत में एक दालान पर कुछ लोग पुआल बिछा कर बाहर ही सो रहे थे। हमलोगों ने जगाया। अब उनलोगों ने जब पूछा कि कहां घर है, कहां से आए हो तो अकबका गया। नर्भस थे ही, कुछ बताना भी जरूरी था जिसपर उन्हें भरोसा हो जाए। बताया कि पटना से आ रहे थे रास्ते में नशाखुरानी का शिकार हो गया और फिर रेल से फेंक दिया गया और रात भर भटकते भटकते यहां पहूंच गया। रामा। ठंढ़ से देह थर्रथराने लगा। लगा जैसे रात भर की ठंढ अभी अभी सिमट आई है। पूरा देह बर्फ की सिल्ली की तरह जमने सा लगा था। दोनों वहीं पुआल पर बैठ गए। पैर में ठेहुंना तक कादो लगा हुआ था। लोगों ने पंडित जी कह कर घर वालों को जगाया। पंडित घर से निकले। गांव का नाम पूछा तो बताया गया, यह पटना जिले का बाढ़ थाना के अजगारा गांव है। बाढ़ का नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो गए। कुख्यात सरगना अनन्त सिंह का ईलाका। यहां तो दिन में भी मार कर फेंक देगा और पता नहीं चलेगा। 
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खैर, पंडित जी का पूरा परिवार जाग गया। बहुत अफसोस जताते हुए पंडित जी ने आश्रय दे दिया। ओढ़ने के लिए एक कंबल भी दे दी। रात के लगभग तीन बजे थे। अभी सुबह होने में एक-आध घंटे बाकी थे। पंडित जी की पत्नी ने चाय लाकर दिया और गर्म चाय ऐसे गले में उतर रही थी जैसे अमृत।  अजीब आफत है। रात भर नींद नहीं आई। लगता रहा कहीं से कोई आया और हमे पकड़ ले जाएगा। खैर, सुबह हो गई। बस पकड़ कर बाढ़ आ गया और फिर सबसे पहले घर पर टेलीफोन किया। जानता था सब परेशान होगें। फिर बाढ़ से बस पकड़ कर घर के लिए चल पड़ा। मनोज जी के पास पैसे थे। उन्होने बताया कि उनकी पिछली जेब में दो हजार रूपये थे जिसे उन्होने छुपा कर रखा था।  ओह, घर आया तो यहां का नजारा भी बदला बदला हुआ था। 
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कई तरह की चर्चाऐं हो रही थी पर कुछ दिल को दुखाने वाली बातें भी सामने आई। मैं अपने घर गया। पत्नी का बुरा हाल था। मुझसे लिपट कर रोने लगी।  देवा, कैसे कैसे दिन दिखाते हो। इस बीच कई बातों की जानकारी मिली। यह कि मेरा छोटा भाई बरूण को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने यह पता लगा लिया कि अपहरण करने वाला सरदार तोरा गांव का संजय यादव है। वह अपने साथियों के साथ संजय यादव के घर पर जा धमका और धमकाया। भैया को कुछ हुआ तो पूरे परिवार को खत्म कर देगें। फिर उसे वहां से छोड़ देने का आश्वासन मिला। और अन्त में दुख हुआ तो यह कि उस दिन के अखबार में दो कॉलम की खबर भर छपी थी पत्रकार का अपहरण। वह भी स्थानीय पत्रकार मित्रों के सहयोग से। अखबार के लिए यह और लोगों की तरह ही एक खबर भर थी। हाय रे। जिसे अपना समझ रहा था वही अपना नहीं।  खैर इस बीच साल दर साल बीतते गए और फिर बिहारशरीफ कोर्ट से नोटिस आया कि अपहरण कांड में गवाही देनी है। संजय यादव कई कंडों में पकड़ा गया था। दोनों ने जाकर गवाही दे दी कि संजय को नहीं जानता। अपना फर्ज निभाया। बहुत मंथन करता रहा कि गवाही दें की नहीं। पर संजय के व्यवहार और उससे किए गए वादों ने गवाही दिलबा दी।  वहीं पिछले चुनाव में संजय यादव पंचायत चुनाव में मुखिया के लिए चुनाव लड़ने की योजना बनाई और फिर अखबार में खबर छपी की सरमेरा में गोली मारकर उसकी हत्या कर दी गई। वहीँ मुख्य सरगना और बरुआने मुखिया की हत्या हो गयी.  आज तीस तारीख है और इस बात को याद करते हुए जिंदगी कई रंग दिखा देती है। अपराधियों का सच और जिंदगी की हकीकत, सबकुछ.... 

29 दिसंबर 2014

एक पत्रकार का अपहरण-(आपबीती)-1 पुरानी यादें / नए मित्रों के लिए ...

पुरानी यादें 30 दिसम्बर 2005 की वह काली शाम जब भी याद आती है मन सिहर जाता है। उस रात बार बार मौत ऐसे मुलाकात करके गई मानों रूठी हुई प्रेमिका को आगोश में लेने का प्रयास कोई करे और वह बार बार रूठ जाए।  समय करीब चार बजे थे। नालन्दा जिला के सरमेरा प्रखण्ड से प्रभात खबर अखबार के लिए रिर्पोटर तथा एजेंट खोजने गए थे। उस समय पत्रकारिता का नया नया जोश था, सो अखबर के अधिक से अधिक बिक्री हो इसके लिए अपने मित्र मनोज जी ने एजेंसी ली। उस समय अखबार लगभग लॉन्च ही हुई थी। यहां बिक्री नही ंके बराबर थी और इसीलिए जुनून में आकर मोटरसाईकिल पर धूम-धूम कर अखबार का ग्राहक बनाया, सुबह सुबह कई धरों में भी अखबार पहुंचाया। पूरे शेखपुरा जिला का एजेंसी लिया था सो अखबार की बिक्री बढ़ाने के लिए मेहनत कर रहा था। इसी सिलसिले में सरमेरा जाना हुआ। लौटते लौटते चार बज गए।  रास्ते भर आदतन हंसी मजाक करते हुए दोनों मित्र लौट रहे थे तभी तीन-चार किलोमीटर दूर जाने के बाद गोडडी गांव के पास मैने मोटरसाईकिल रोकने का आग्रह किया। लालू यादव के सरकार का अभी ताजा ताजा ही पतन हुआ था सो अपराधियों का आतंक और भय बरकरार था। मैंने कहा- ‘‘रोको जरी गड़िया, पेशाव कर लिऐ।’’ ‘‘घुत्त तोड़ा तो कुछ डर-भय नै हो, क्रिमनल के ईलाका है कहीं कोई अपहरण कर लेतो तब समझ में आ जाइतो।’’ ‘‘धुत्त छोड़ो ने, हमरा अर के, के अपहरण करतै, लपुझंगबा के।’’ और मोटरसाईकिल रोक दिया गया। हमदोनों फारीग हुए। उन दिनों बरबीघा-सरमेरा सड़क की हालत एक दम जर्जर थी। सड़क कम और गड्ढे ज्यादा थे। इसी वजह से बहुत कम बसें चलती थी। जैसे ही हमलोग मोटरसाईकिल पर चढ़ने लगे कि सेम कलर, सेम मोडल की एक मोटरसाईकिल पर दो लोग बगल से गुजरे। नंबर प्लेट पर मेरी नजर गई तो पंजाब नेशनल बैंक लिखा हुआ था। उस पर भी दो लोग सवार थे। ‘‘देखो, ऐकरा अर के  अपहरण करतै कि हम गरीबका के।’’-मैंने कहा और फिर वह मोटरसाईकिल मुझसे थोड़ी आगे निकल गई। मनोज जी ने  बताया कि यह सरमेरा पंजाब नेशनल बैंक का मैनेजर है। दोनों इसी चर्चा में मशगुल थे कि कैसे कोई इसका अपहरण नहीं करता। उन दिनों अपराधियों का बोलबाला था। कुख्यात डकैत कपिल यादव ने कुछ दिन पहले ही मेंहूस रोड में दो लोगों को बस उतार कर आंखें फोड़ दी थी।  खैर, हमदोनों निश्चिंत भाव से बोलते-बतियाते, हंसी मजाक करते हुए चले जा रहे थे। मैनेजर की मोटरसाईकिल आगे निकल गई। तभी अचानक तोड़ा गांव के पूल के पास  पहूंचते ही तीन-चार लोगों मोटरसाईकिल के आगे पिस्तौल तान कर खड़ा हो गए। हमदोनों कुछ समझ पाते कि तभी मनोज जी के सर पर पिस्तौल की बट से मारना प्रारंभ कर दिया। फिर दोनों मोटरसाईकिल से उतर गए। अभी तक किसी भी प्रकार के अनहोनी की आशंका नहीं थी। पर तभी दोनों को सड़क के नीचे खेतों में पिस्तौल की बट से मारते पीटते ले जाने लगे। पहले तो लगा कि शायद लूटरें हो, पर जब खेतों में कुछ दूर ले जाकर सवाल जबाब करने लगा तो हम दोनों समझ गए कि दोनों का अपहरण कर लिया गया... 
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फिर अपराधी दोनों को कुछ दूर खेतों में ले गए और पूछ ताछ करने लगे। उनमें से एक मनोज जी को गलियाने लगा।- ‘‘साला, बड़का मैनेजर बनता है, बैंक में लॉन लेने के लिए जाते है तो टहलाता है, बाबा बनता है, अब बताओ।" उसकी बातों से लगा कि वे पीएनबी बैंक का मैजेनर समझ कर दोनों का अपहरण किया है। यह बात भी समझ आ गई कि ये लोग मुझसे तुरंत पहले निकले मैनेजर का अपहरण करना चाहते थे पर एक ही रंग की गाड़ी दोने की वजह से कन्फयुज कर गए।  खैर, हमदोनों पहले अपना अपना परिचय दिये और बताया कि हम बैंक मैनेजर नहीं हैं पर उनको मेरी बातों पर यकीन नहीं हुआ। चुंकि मेरे मित्र बढ़िया जैकेट, घड़ी और चश्मा लगाए हुए थे सो उनको लगता था कि यह मैनेजर ही है। फिर वहां से थोड़ी दूर खंधा में हम दोनों को पैदल ले गया और एक उंचे अलंग के नीचे सब मिलकर बैठ गया। मैंने गौर किया कि चार तो मेरे साथ थे पर एक हमलोगों से थोड़ी दूरी बना कर चल रहा था। हमलोग अपने पत्रकार होने का परिचय भी दिया पर वे लोग मानने को तैयार नहीं थे। अब दोनों के पास कोई चारा नहीं था। मनोज जी कुछ बोलना चाहे तो फिर पिस्तौल की बट से मार दिया। वे नर्वस हो गए। पर मैं समझ गया कि ये लोग अपराधी है और अब धैर्य के अलाबा कोई चारा भी नहीं, सो मैं उनमें से एक, जो देखने में थोड़ समझदार और संस्कारी लगता था, बतियाने लगा। मैंने अपना पूरा परिचय सही सही दिया। उसके एक मित्र के बारे में भी बताया कि जो  अपराधी गतिविधियों में शामिल रहता था और मेरे गांव का था। उसने उसे पहचाना। धीरे धीरे अंधेरा घिरने लगा। सड़कों पर केवल गड़ियों के चलने की आवाज और लाइट दिखता था। दिसम्बर का महिना था और मैने केवल हॉफ स्वेटर पहन रखा था सो ठंढ़ से कंपकपाने गला। फिर सबने दोनों को चलने के लिए कहा। खंधा में खेते-खेते हमलोग चलते रहे। कहीं चना के खेत में बड़े बड़े मिट्टी के टुकड़ों पर चलना पड़ा तो कहीं बीच में गेंहू के पटवन किए खेत के कीचड़ से होकर गुजरना पड़ा। हमलोग लगातार तीन चार धंटा तक यूं ही चलते रहे। इस दर्दनाक और डरावने सफर में मुझे लगा की शायद अब दोनों का आज अंतिम दिन है। इस बीच मनोज जी थक गए और चलने से इंकार कर दिया। तभी उनमे से एक ने भद्दी-भद्दी गलियां देते हुए उनको मारने लगा। फिर सबने मिलकर आपस में बात की और कहा कि दोनों को खत्म कर दो, कहां ले जाते रहोगे। दो युवकों ने पिस्तौल तान दी। इसी बीच मैंने साहस का दामन नहीं छोड़ा और उसके सरदार की तरह लगने वाले युवक से बातचीत प्रारंभ कर दी। बहुत आरजू मिन्नत करने के बाद वह थोड़ा समझा और साथियों को रोक दिया। दोनों ने राहत की सांस ली। इसी बीच मनोज जी के पैर में बाधी (मांसपेसियों में खिंचाव ) लग गई और वह गिर गए। मैने झट उनके पैर को सहलाते हुए उनको सहारा दिया। अपराधियों को लग रहा था कि वह नकल कर रहे हैं। खैर मैने कंधे का सहारा दे उनको लेकर चलने लगा। बीहड़ माहौल। दूर कहीं कहीं किसी गांव के होने का अभाव कुत्तों के भौंकने की वजह से ही होती थी या कहीं कहीं किसी गांव में एक-आध लालटेन के जलने की वजह से। एक बात महसूस किया कि गांव से थोड़ी दूर पर ही होता था कि गांव में कुत्ते भौंकने लगते और फिर गांव का अभास मिलते ही अपराधी रास्त बदल देते।  सफर जारी था और बातचीत का सिलसिला भी। इसी बीच सरदार की तरह लगने वाला युवक बड़ा आत्मीय ढ़ग से बातचीत करने लगा। मनोज जी ने कहा- "जो हो, मारना हो तो मार दो।" हमलोग बस चलते ही जा रहे थे। बातचीत में युवक को मैंने कुरेदना प्रारंभ कर दिया।   मैंने कहा कि मैं पत्रकार होकर जुल्म के विरोध में ही आवाज उठाता रहा हूं और जानता हूं कि अपराधी मजबूर होकर ही अपराध करते है। मेरी बात उसे चुभ गई। फिर उसने अपनी दारून कथा सुनाई। कैसे रोजगार की तलाश में वह भटकता रहा। कैसे रोजगार के लिए बैंक से लॉन लेने के लिए वह लगातार बैंक का चक्कर लगाता रहा है और बैंक ने लॉन देने से मना कर दिया। मैनेजर तो मिलने तक को तैयार नहीं हुआ। बातें होती रही और हमलोग चलते रहे। फिर जब वे लोग थक गए तब जाकर एक स्थान पर बैठ गये। उस युवक ने मुझे थोड़ी दूर साथ चलने की बात कही। मैं सहम गया। शायद मुझे एकांत में लेजाकर मार देगा?   पर नहीं वह मुझसे मेरे मित्र के बारे में पूछने लगा। ‘‘लगो है इ कोई बड़का आदमी है? बता दे तो तोरा छोड़ देबौ।’’ उसने अब अपनी मगही भाषा का प्रयोग किया। देवा। मनोज जी मोटरसायकिल शो रूम के मालिक थे, इस लिहाज से यदि यह बात उसे पता लग जाती तो निश्चित ही वह उन्हें पकड़ के ही रख लेता। वह शातीर भी था जो मुझे छोड़ देने का प्रलोभन देने लगा। मैं उसे समझाता रहा है कि यह पटना से थक हार कर बरबीघा आ गए है और अखबार का एजेंट तथा पत्रकार है। वह मानने को तैयार नहीं हुआ और मेरी देस्ती की परीक्षा लेने लगा। देवा, दोस्ती बचाउं की जान.......... जारी है..

28 दिसंबर 2014

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज : भगत सिंह

(इस त्रासद समय में जब धार्मिक उन्माद यत्र, तत्र सर्वत्र है उस भगत सिंह को याद करना प्रासांगिक है जिसने भारत मां की खुशहाली के लिए हंसते हुए फांसी के फंदे को चूम लिया....पढ़िए भगत सिंह को .. )


भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है. यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें. किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों,हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है. यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है. बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था. जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है.
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है. इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है. और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं. कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है,जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं. बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं. इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है.

यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है. इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं. सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे. ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था. आज बहुत ही गन्दा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो.
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है. कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है. बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है. जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है.
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है. असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं. उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी. असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये. विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है. कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है. इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है.
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है. भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है. सच है, मरता क्या न करता. लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती. इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए.
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है. गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं. इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए. संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म,रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो. इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी.
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे. लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है. अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए. अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं. जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी. इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे. लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी.
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी. वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे. यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे. वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है.
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं. उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी. भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है. भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए. उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं.
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था. वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं. न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता. इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे.
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं. झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं.
यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है. धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें.
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे.

16 दिसंबर 2014

गांव के बलात्कार पीडिता की आवाज क्यूँ नहीं उठाती मीडिया? (निर्भया कांड की बरसी पे)

निर्भया रेप कांड का आज मीडिया वाले फिर  बलात्कार का  बलात्कार करेंगे और  ऐसा मैट्रो सिटी  के  मामले में ही  होता है, गांव  के मामले में नहीं । पिछले  साल बिहार के शेखपुरा जिले के शेखोपुर थाना के ओनामा पंचायत के एक गांव में दस  साल की अबोध बच्ची से उसके बूढी दादी को बांध कर हुए सामूहिक बलात्कार के मामले  में पुलिस  ने बड़ी मुश्किल से fir दर्ज  किया और अपराधी की पहचान  नहीं हुयी । इस गम में उस बूढी दादी ने दम तोड़ दिया । उसके परिवार को गांव से भगा दिया और मीडिया में  यह छोटी सी खबर भर बनी । बस ... ऐसा क्यूँ?  

यह  भी सच है की मीडिया के  दबाब की वजह से ही रेप को लेकर कड़ा कानून बना जिसमे लड़कियों को  घूरने तक को गैरजमानती अपराघ बना दिया पर इसका असर बिलकुल ही देखने को नहीं मिलता ।  आज  छोटे से कस्बाई शहर में जो मैं देखता हूँ वह आक्रांत करने वाला है ।बदले  बिहार में आज बड़ी संख्या छात्राएं  स्कूल में पढाई  नहीं होने की  वजह से कोंचिग में पढ़ने जाती  है जहाँ रास्ते से  लेकर कोचिंग तक छात्राओं को स्त्री होने का दंश झेलना पड़ता है । फब्तियों औत गंदे कमेंट को नजर अंदाज़ कर वह आगे बढ़ जाती है. ऐसा क्यूँ होता ? 

आज  भी यदि किसी स्त्री के साथ बलात्कार होता है तो समाज का पहला प्रयास इस मामले को दबा देने का होता है ऐसा क्यूँ ? 
आज  भी परुष प्रधान समाज में स्त्री, लड़की के चरित्रहीन होने की चर्चा चटखारे के साथ होती है और बड़ी संख्या में इस चीरहरण में महिलाओं को भी शामिल देखा जाता है ! बहुत बड़े बुद्धिजीवी के पास भी किसी न किसी लड़की के छिनार होने के किस्से होते है और वह उसे ऐसे सुनाते है जैसे वहीँ मौजूद थे। आज भी जो  महिला थोड़ी जागरूक हो और साहस से अपने काम करती हो उसे समाज चरित्रहीन कहना प्रारंभ कर देता है ।  
ऐसा क्यूँ होता ?  

आज भी  बलात्कार पीड़ित महिला ही समाज की नजर में आरोपी होती  है और उस पीड़ित की इज्जत लुट जाती है । मुझे आज भी सत्यमेव जयते सीरियल याद  है जब सोशल  वर्कर महिला ने कहा की बलात्कार  के बाद जिस इज्जत के लुट जाने की बात समाज करता है, उस इज्जत  को महिला  के योनि ने किसने रखी, जो वहां से लुट गयी..!  इस कटाछ ने मेरे रोंगटे खड़े कर दिए थे पर सचाई  को जब तक हम नंगा नहीं करेंगे तब तक वह सच कैसा? आज  भी बलात्कार पीड़ित़ा ही समाज के कठघरे में आरोपी की तरह खड़ी होती है, ऐसा क्यूँ? 

 समाज  के इस  बिद्रूप चेहरे के साथ मुझे मीडिया भी खड़ा दिखता है, ऐसा क्यूँ... जबाब  तलाश रहा हूँ मैं..

14 दिसंबर 2014

फैंसी मैच जानबूझ कर हारना खेल भावना के साथ बलात्कार....


आज कॉलेज मैदान में जिला प्रशासन और नागरिक एकादश के बीच फैंसी क्रिकेट टुर्नामेंट का आयोजन हुआ जिसमें एक खिलाड़ी के रूप में मैं भी आमंत्रित था और खेलने गया भी। पच्चीस साल बाद मैं उसी मैदान में उतरा जहां कभी अपने गांव की आरे से कप्तान हुआ करता था पर उस समय मुझे आत्मग्लानी हुई जब एहसास हुआ की जिलाधिकारी, एसपी सहित अन्य अधिकारियों को जानबुझ कर जीतने का मौका दिया जा रहा है। 

इस बात की खबर मुझे तब लगी जब तीसरे या चौथे ऑवर में बहुत ही परिश्रम से मैने जिलाधिकारी का कैच पकड़ लिया पर एम्पायर ने उसे नो वॉल घोषित कर दिया तब भी मुझे इस बात की भनक नहीं लगी, खबर तब लगी जब थोड़ी देर में मेरे आयोजक मित्र ने कहा कि इस तरह का कैच नहीं पकड़ना है और जिला प्रशासन की टीम को जीतने देना..! जानकारी मिलते ही मैं मैदान छोड़ कर बाहर हो गया। सचमुच जिला प्रशासन की टीम की जीत हुई। सारे शिल्ड और पदक पदाधिकारियों के बीच वितरित कर दिया गया और चम्चागिरी की सारी सीमाओं को लांध दिया गया। बतौर खिलाड़ी मुझे भी पदक लेने बुलाया गया पर मैंने अपना विरोध दर्ज कराते हुए पदक ग्रहण नहीं किया।
निश्चित ही प्रशासन और नागरिक के बीच इस तरह का मैच एक सराहनीय पहल है जिसकी वजह से मैं भाग लिया पर जिस तरह से खेल भावना के साथ बलात्कार किया गया वह धोर निंदनीय है... और आज मैं आत्मग्लानी से भरा हुआ इस मौच का हिस्सा बनने पर अपने आप को कोस रहा हूं.....

04 दिसंबर 2014

घृणा, उग्रता, जाति-धर्म और हिंसात्मकता दिखती है सोशल मीडिया पर..

सोशल मीडिया वौज्ञानिकता का प्रतीक है पर आज यहां घृणा, जाति-धर्म और हिंसात्मकता ही दिखती है। रामजादे-हरामजादे और मरीच के रूप में घृणा के बोल निकल रहे है और उसके समर्थन में एक बड़ा वर्ग सामने आ रहा है। 

युवाओं के जहर बुझे बोल है, एक कौम विशेष के लिए आग बरस रही है। सेकूलर होने पर गाली दी जा रही है। यह भारत के लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। हमारा देश और इसका जनमानस सेकूलर है, (छद्म सेकूलर नहीं)  और आम आदमी सभी जाति और धर्म के लोगों के साथ मिलकर रहते है। उसी के साथ उठते-बैठते, हंसते-बोलते है। हां छद्म सेकूलरों ने इस छवि को धुमिल किया है, इससे भी सहमत हूं। 

अब सचमुच में लगने लगा है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनना भले ही विकास की नई रौशन ले कर आने वाली साबित होगी पर उसी रौशनी से कुछ लोग देश के सेकूलर छवि को जला देना चाहते है, आग लगा देना चाहते है। तब सच्चे सेकूलरों को आगे आकर इसका डटकर विरोध करना चाहिए, मैं अपना विरोध दर्ज कराता है। 

आज जब हम आधुनिक युग में जी रहे है वैसे में मानवता, आदमीय, प्रेम और भाईचारा से बढ़ कर कोई धर्म नहीं हो सकता, कोई धर्म नहीं...

01 दिसंबर 2014

हलवान पुष्पंजय बना बिहार टॉपर, ग्रामीणों ने किया अभिन्नदन।

बरबीघा / बिहार 
पहलवान पुष्पंजय कुमार उर्फ निखिल बिहार टॉपर पहलवान बन गया और गांव पहूंचते ही ग्रामीणों ने उसका जमकर अभिन्नदन किया। पुष्पंजय ने बिहार सरकार के कला, संस्कृति एवं युवा विभाग के द्वारा अन्तर प्रमण्डल स्कूल हैण्डबॉल एवं कुश्ती प्रतियोगिता के 69 किलोग्राम वजह में गोल्ड मेडल हासिल किया। इसका आयोजन 28 एवं 29 नवम्बर को पश्चिम चंपारण में किया गया था।

पुष्पंजय बरबीघा प्रखण्ड के शेरपर गांव निवासी राजनीति सिंह का पुत्र है। बरबीघा उच्च विद्यालय का छात्र पुष्पंजय कुश्ती में ही अपना कैयरियर बनाना चाहता है पर आर्थिक कमजोरी उसके सपने के आड़े आ रही है। पुष्पंजय ने कहा कि बचपन से ही वह कुश्ती के प्रति आक्रषित था और फिर गांव में कुश्ती लड़ते हुए उसने प्रमण्डलीय प्रतियोगिता में बढ़िया प्रदर्शन किया जिसके बाद बिहार के नामी पहलवान जयराम यादव की उसपे नजर पड़ी और उन्होने उसे कुश्ती को कैरीयर बनाने की प्रेरणा दी और पुलिस लाइन अखाड़ा में कुश्ती का प्रशिक्षण दिया जिसकी वजह से वह गोल्ड जीत सका।

पुष्पंजय के बिहार टॉपर पहलवान बनने पर ग्रामीण बबन सिंह , पुर्व वार्ड सदस्य रविशंकर सिंह कहते है कि इसने गंाव का ही नहीं पूरे बिहार का मान बढ़ाया है और बिहार सरकार यदि इसे विधिवत प्रशिक्षण दे तो यह नेशनल के साथ साथ ओलंपिक तक का सफर तय कर सकता है।
इसके अभिनन्दन समारोह में जयराम झा, कौशल कुमार, महेश्वर सिंह, शंकू कुमार सहित अन्य शामिल हुए।

30 नवंबर 2014

भेंड़ियाधसान..


जॉन्सन बेबी के युग में दो शब्द इस बच्चे के लिए आपके पास हो तो कहे जो चिलचिलाती धुप में , धान के खेत में,  धान के पातन पे बैठा है । यह अफ्रीका का नहीं , भारत का ही बेटा है ..जिस धान पे यह बैठा है इतना धान भी मालिक इसे लेने नहीं देता और माँ कहती है की -"बुतरू के दूध पिए ले दे दहो .."

जब मैं फोटो लेने लगा तो इसकी माँ बोली- "काहे ले फोटुआ खींचो हो, कुछ मिल्तै की..."

क्या जबाब देता..इस सोशल मिडिया में  इन गंभीर मुद्दों पे सन्नाटा सा छा जाता है, शायद हम शर्मा जाते है...चलो शर्म तो बाकि है !













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भेंड़ियाधसान
भागमभाग
आपाधापी
गलकट्टी
से बहुत कुछ
पा लिया हमने....

बस गंवा दी
अपनी संवेदनाऐं
अपना शर्म
अपनी हया
अपने आंख का पानी
अपनी आदमियत...

28 नवंबर 2014

गांव से भी गायब हो गई गोरैया, खो रही मैना...(गांव का हाल-चाल)

(गांव-शेरपर, पो0-बरबीघा, जिला-शेखपुरा, बिहार)
बहुत दिनों के बाद इतने सारे ‘‘मैना’’ को देखा तो प्रसन्नता हुई! अब गांव में भी पंछियों की संख्या में भारी कमी आई है। कुछ पंछी तो लगभग नजर ही नहीं आते। ऐसे में मैना को इतनी संख्या में देखने से खुशी होती ही हैं।
एक समय था जब गांव में गोरैयों को चुगने के लिए धान की नई फसल को घर में टांग दिया जाता था और इसे फोंकने के लिए गोरैयों का झुंड जमा हो जाती थी पर पिछले कई सालों से गोरैया नजर नहीं आती है। मैंने इस साल भी धान की बाली को लाकर टांग दिया पर एक भी गोरैया उसे फोंकने नहीं आई। 

कुछ साल पहले तक मकई के खेत को तोतों की झुंड से बचाने के लिए दादा जी मचान बना कर उसकी रखबाली करते थे और हमें भी मचान पर बैठा दिया जाता था और टीन का कनस्तर बजा कर हम तोंता उड़ाते थे या फिर आदमी का पुतला बना कर खड़ा कर दिया जाता था जिससे पंछी हड़क जाऐं पर अब तोंता भी गांव में एक आध ही नजर आते है। इसी प्रकार बुलबुल की चहक भी गायब हो गई और दशहरा में जतरा के दिन नीलकंढ को उड़ते हुए देखने की परंपरा का अब निर्वहन कैसे होगा पता नहीं? गांव में नीलकंढ नजर ही नहीं आते। 

और यदि मैं अपना बचपन याद करू तो गिद्ध को पकड़ कर जहाज बनाने की दोस्तों के साथ योजना कई दिनों तक बनाई थी पर अब इस योजना का क्या होगा? गिद्ध तो कहीं नजर हीं नहीं आते। वहीं चील, बाजी भी अब दिखाई नहीं देते और कबूतरों का झूंड भी गायब हो गया। 

 कबूतर की ही प्रजाति की एक पंछी थी जिसको हमलोग पंड़की कहते थे, वह भी अब गायब हो गई है और मैना तथा कैआ भी बहुत कम पाये जाते है।
एक समय था जब पंछियों से छत पर सूखने वाले अनाज की रक्षा के लिए मां हमे छत पर बैठा देती थी और हम धात धात कर पंछी उड़ाते थे पर अब ऐसा नहीं होता, एक भी पंछी अनाज चुगने नहीं आती। ऐसा क्यों और कैसे हुआ इसपर शोध किए ही जा रहे है पर इसका प्रमुख कारण खेती में कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग और शायद मोबाइल टावर से निकलने वाला विकिरण ही है और इन चीजों पर रोक तो लगाया नहीं जा सकता सो पंछियों को बिलुप्त होने से बचाया भी नहीं जा सकता....और वे दिन जल्द ही आएगा जब हमारे बच्चे तस्वीरों को देखकर कहेगें एक थी गोरैया, एक थी मैना.. है न....





22 नवंबर 2014

कनकट्टा (मगही व्यंग्य रचना ) दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित

दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित 
(पटना 26/11/14)
जहिना से सोशल मीडिया के जमाना अइलो हें तहिना से भगत और भगवान के मतलबे बदल गेलो हें। अब त सब अप्पन अप्पन भगवान और अप्पन अप्पन भगत गढ़ ले हो। अब त जमाना चैटिंग और डेटिंग के है सेकार से ही भगवानों से सीधे चैटिंग हो जाहो और भगत सब फुलके कुप्पा हो गेलो।



अब सोशल मीडिया के बात करभो त हियां तो चिटिंग करे वला के बड़ाय लुटो हल अ इमान से रहे वला के कोइ नै पूछछो हय। अब कि कहियो, विश्वास नै हो त एगो सुन्दर, सुशील और हाॅट कन्या के नकली प्रोफाइल बना के सोशल मीडिया पर डाल दहो, फेर देखहो...। दस साल सोशल मीडिया के जंगल में जेतना तपस्या कलहो हल सब तुरंतें टूट जइतो। कइगो संत, महात्मा ई मेनका के मोह पास में फंस के अपन्न अपन्न तपस्या भंग कर देताकृताबड़तोड़ फ्रेंड रिक्वेस्ट औ काॅमेंट के भरमार हो जइतो।


अब नामी गिरानी कवि महाराज सब के कविता पर नै एगो लाइक मिलतो औ नै ए गो काॅमेंट अ उहे कविता के इ सुकन्या के प्रोफाइल से डाल के देखहो..त तोड़ा अपप्न मरदाना होबे पर लाज लगतो....। लगतो कहे नै, देखभो कि कैसे सब मर्दाना जिलप्पक नियर एक से एक लच्छेदार बात काॅमेंट लिखे लगतो....।


अब ऐकरे से सोंचहो! जमाना तो कट-पेस्ट के है से हे से कब तोरे लिखल रचना कब तोरे पास दुश्मन, दोस्त के रचना बनके तोरे पास आ जाइतो कहल नै जाहो।


कमाले है कि नै है! औ ऐसने चैंटिंग-चिटिंग के जमाना में भगत सब भगवान के जयकार ऐसे कर रहला है जैसे ग्यारहवां अवतार उहे हका...। भोर से सांझ तक जन्ने देखहो ओन्ने उनकरे जयकारा हो रहलो है। एकदम भेंडि़याधसान हो गेलो है। तीर्थयात्री नियर सब जय जय कर रहल है। वैसने, जैसन कान कटैला पर भगवान मिलतो के फेरा में समूचा गांव कान कटा लेलक......अब सब कनकट्टा हो गेल हैं अब के केकार कनकट्टा कहतै। जय जय जय जय जय... जयकार करहो..... भुखल पेट कत्ते दिन भजन होतई.. देखहो...।

16 नवंबर 2014

उसने तो आत्महत्या कर ली, तुम कब करोगे....

नाम  में क्या रखा  है ...। उससे मेरा बहुत परिचय नहीं था पर वह दिन भर में जितनी बार भी मिलता बहुत विनम्रता और शिष्टता से झुक कर प्रणाम जरुर करता ।  कभी  सिगरेट पीता हुआ दिख जाता तो सिगरेट झट से छुपा लेता...कभी  कहीं शराब पीता दिख  जाता तो सबकुछ छुपा लेता.....उसने भी देखा की मैंने देख लिया पर  उसका लिहाज करना मुझे अच्छा लगता था...

        विवश हो कर मुझे पता करना पड़ा की वह कौन है , आश्चर्य रूप से पता चला की वह  एक खतरनाक अपराधी है ।  उसके  अपराध की कहानी सुन कर मैं सहम सा गया । पहले प्रणाम के जबाब में मैं उसे भी प्रणाम  करता था, जाने  क्यूँ ? पर मेरी आदत है की जब भी कोई भी मुझे प्रणाम करता मैं भी उसे प्रणाम ही करता हूँ । खैर, जानकारी  मिलने के बाद मैंने उसे जबाब में प्रणाम करना छोड़ दिया पर उसका शालीन, सभ्य और  विनम्र  सा चेहरा जहाँ भी मिला, मुझे सालो प्रणाम करता रहा...कल अचानक  खबर मिली की उसकी मौत हो गयी...सदमा  सा लगा..किसी  की भी मौत से खुश  तो कतई नहीं हुआ जा सकता..सो...। 

पता  चला की उसके पिता का अपराधियों ने इसलिए अपहरण कर लिया की उसने उसका बलोरो गाड़ी लूट ली थी और पता चलने पर उससे मांगने पर उल्टा गली गलौज और धमकी देने लगा । परिणाम उसको खोजने आया और नहीं मिलने पर उसके पिता का अपहरण कर लिया...। 

कल उसके मौत की खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल गयी । वह एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार का एकलौत पुत्र था..वह अपने दो  बच्चे की परवरिश  ठीक से हो इसके लिए शहर में रहकर उसे प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ता था । स्थानीय स्तर कोई उसकी शिकायत नहीं करते ...सबकी नजर में वह सादगी से भरा हुआ युवक था...पर आज वह इस दुनिया में नहीं है...कोई कहता है की पिता के अपहरण के बाद परिवारों की पड़तारना से शर्मिंदा होकर उसने जहर खा कर आत्महत्या  कर ली...! कोई  कहता है उन्ही अपराधियों ने उसकी हत्या कर दी...जो  हो पर आज वह इस दुनिया  से विदा हो गया...आज  उसके संगी-साथी जो रोज उसके साथ शराब पीते थे और अपराध करते थे, आज उदास है..उनको  झटका लगा होगा...कई  को जनता हूँ और वो फेसबुक पे भी सक्रीय है..पर  मुझे उनसे डर भी लगता है फिर भी.... मैं उनसे कहना चाहता हूँ की एक खूंखार डाकू जब बाल्मीकि बन रामायण लिख सकते है तो वो क्यूँ नहीं वापस आ सकता है...मनुष्य के अन्दर अपार संभावनाएं है..अंगुलिमाल  डाकू से बुद्ध ने  कहा था "मैं तो रुक गया, तुम  कब रुकोगे.." मैं  बुद्ध तो नहीं जो कोई मेरी बात मान ले पर फिर भी कहूँगा की साथी की मौत से सबक लो और अपने परिवार के  खातिर अब  लौट जाओ, अपराध  की दुनिया का  अंतिम सत्य तुमने देख लिया...। 

उफ़!  लोगों  की बात  पे आज  भी भरोसा नहीं होता की वह एक अपराधी था, मुझे  तो अभी भी यह भरोसा नहीं होता की वह मर गया...उसका  हँसता, मुस्कुराता, शालीन, विनम्र, सभ्य और  संस्कारित चेहरा उस  गली से गुजरते हुए आज भी वहीं खड़ा  मिलता है ..प्रणाम करते हुए...

वह जो था, जैसा  था पर  यदि उसने आत्महत्या  की है तो मैं  कह सकता हूँ की उसके  अन्दर अभी भी आदमी जिन्दा था..जिसने  उसे जीने नहीं दिया...पर  उसके दो मासूम बच्चों का भविष्य  अब क्या...सोंच रहा हूँ...

06 नवंबर 2014

बिना बुर्का की मुस्लिम महिलाएं प्रगति की निशानी


ताजिया पहलाम में दो बातों की तरफ मेरा ध्यान गया । एक मुस्लिम समाज के उत्थान तो दूसरा पतन का परिचायक है । पहला यह की ताजिया पहलाम में बड़ी संख्या महिलाएं शामिल थी वो भी वगैर बुर्का के । यह एक बड़ा बदलाव है । बुर्का महिलाओं के मानवाधिकार का हनन है औए इस बदलाव को देख अच्छा लगा ।महिलाओं बुर्का को मैं दमन की निशानी मानता हूँ जो पुरुषवादी समाज धर्म की आड़ में जबरन महिलाओं पे थोप देता है । आधुनिक युग में महिलाओं की स्वतंत्रता ही नयी पीढ़ी को नया रास्ता दिखाएगी , उसे नयी उर्जा और नए मंजिल का पता बताएगी । जिस समाज में भी महिलाओं का दमन है वह अपना विनाश ही करता है ।

इसी तरह पतन के रूप में देखने को मिला की जिस इस्लाम ने शराब को हराम बताया उसी में ताजिया के दौरान कई युवा शराब के नशे में झूम रहे है...
हिन्दू समुदाय के पर्व होली, दशहरा का नाश शराब ने कर दिया । होली में अब बिना शराब पिए लोग सड़क पे नहीं निकलते क्यूँकि सभी नशे में धुत्त होते है और इस तरह हमारी सभ्यता और संस्कृति का नाश शराब कर रही है । आज मुस्लिम समाज में भी यही दिखा ।

02 नवंबर 2014

अभिनेत्री ललिया उर्फ़ रतन राजपूत पहुंची ननिहाल


अभिनेत्री ललिया उर्फ़ रतन राजपूत बरबीघा स्थित विश्व में बिष्णु की सबसे ऊँची प्रतिमा दर्शन करने पहुंची ।  सामस गांव में दर्शन के बाद रतन ने इसे बिहार की पहचान बताई और इसके अधूरे विकाश पे गहरी चिंता जताई ।  ललिया निर्माणाधीन मंदिर जाने के रास्ते में भारी परेशानी उठायी ।
रतन बगल के भैरोबिघा गांव अपने ननिहाल आई हुई थी ।
बातचीत में ललिया ने साफ कहा की बिहार की स्टोरी पे फिल्म तो बनती है और बिहारी बोली का डायलौग भी बोला जाता है पर बिहार आकर फिल्म निर्माता नहीं बनाना चाहते है । यह दुखद है की फिल्म निर्माता आज भी बिहार आने से डरते है । ननिहाल में ललिया जमीन पे बैठ कर ही ग्रामीणों से बात की। ललिया ने साफ कहा की लड़कियों को स्वाबलंबी होना ही उसका भविष्य  संबरेगा..।

28 अक्तूबर 2014

तेतारपुर गांव में भजन-कीर्तन करते हुए ग्रामीण करते है गलियों की सफाई । कई दशकों से चली आ रही परम्परा का आज भी हो रहा है पालन।

बरबीघा, शेखपुरा, बिहार
(अरूण कुमार साथी)

साफ-सफाई को लेकर प्रधानमंत्री की पहल पर भले ही देश भर में जन जागरूकता अभियान चला कर सफाई की जा रही है पर एक गांव ऐसा भी है जहां ग्रामीण भजन-कीर्तन गाते हुए गांव की गलियों की सफाई करते है। ऐसा शेखपुरा जिला अर्न्तगत बरबीघा प्रखण्ड के जगदीशपुर पंचायत के तेतारपुर गांव में होता है। दशकों से चली आ रही इस परम्परा का आज भी गांव के लोग पालन कर रहे है।

तेतारपुर गांव में छठ पर्व पर प्रसिद्ध मेला लगता है और यहां का मालती पोखर के किनारे स्थित सुर्य मंदिर की महिमा दूर दूर तक फैली हुई है। ग्रामीण इसी आस्था से प्रेरित होकर कार्तिक माह में अहले सुबह चार बजे प्रभात फेरी निकालते है। प्रभात फेरी में किसी के हाथ में ढोलक होता है तो किसी के हाथ में हरम्युनियम। कोई झाल बजाता है तो कोई झारू लगाता है।

भजन-कीर्तन गाते हुए ग्रामीण जहां गांव की गलियों में घूमते है, वहीं युवा, बच्चे और बड़ी संख्या में महिलाऐं हाथ में झारू लेकर गांव की गलियों की सफाई करते है। बाद में यह प्रभात फेरी मालती पोखर सुर्य मंदिर पर आकर समाप्त हो जाती है। यह कार्यक्रम ग्रामीण पूरे कार्तिक माह भर चलाते है।

इसको लेकर ग्रामीण शिव सिंह कहते है कि भजन कीर्तन गा कर लोगों को जागृत किया जाता है जिससे प्रेरित होकर साफ-सफाई की जाती है। बच्चू सिंह, तनिक सिंह, कारू सिंह की माने गांव में यह परंपरा बनी हुई जिससे लोग अहले सुबह अपने-अपने घरों से निकल कर भजन भी गाते है और गलियों की सफाई भी करते है।

प्रसिद्ध ढोलकिया एवं तबला बादक ग्रामीण कृष्ण पासवान भी इस अभियान में शामिल होते है और कहते है कि गांव के युवाओं में भी इसका उत्साह है जिससे उत्साहित होकर मालती पोखर छठ घाट की सफाई युवाआंे ने की है।

छठ घाट की सफाई एवं प्रभात फेरी में अठ्ठारह वर्षिय युवा मनीष कुमार का प्रमुख योगदान रहता है। मनीष एक पैर से विकलांग है पर छठ घाट की सफाई में वह सबसे आगे रहता है। इसी तरह विपुल, गुलशन, शशी भूषण, प्रमोद सहित अन्य युवा भी सफाई अभियान बढ़ चढ़ कर भाग लेते है जबकि राधे सिंह, राजेन्द्र सिंह, देवेन्द्र सिंह, सुबोध सिंह, परशुराम सिंह की वरिष्ठ मंडली ढोल की थापों पर युवाओं को उत्साहित करते है।

आज जहां सफाई को लेकर जान जागरण का अभियान चलाया जा रहा है वहीं गांव वालों का यह छोटा सा प्रयास प्रेरणा देने वाला है।

20 अक्तूबर 2014

साथी के बकलोल वचन


साथी के बकलोल वचन
हरियाणा में जदयू कंडीडेट
के आयलो 38 वोट।

लगो है जनता जान गेल
सुशासन बाबु के दिल में
है कुछ खोंट।।

है दिल में कुछ खोंट की
अबरी है बिहार के बारी।

लगो है निकलिये जैतै
उनकर हेकरी सारी।।।

(यह पोस्ट androyad से पहली बार डाली है। बहुत ख़ुशी हुई।)

17 अक्तूबर 2014

बधिया किया हुआ आदमी...

कामाग्नी को दमित करने
लेकर हंसुली-लहरनी
निकाल लिया जाता है
उसका अण्डकोश
कर दिया जाता है
जानवरों का
बधिया...



जाति-धर्म
गोत्र-गोतिया
शुद्र-ब्राह्मण
काला-गोरा
शिया-सुन्नी
ईसाई-यहूदी

नामक कई औजारों से
निकाल लिया जाता है
आदमी के दिमाग से
उसका
स्वबोध.....

और कर दिया जाता है आदमी का बधिया...

16 अक्तूबर 2014

उफ.. हत्यारा समाज..

यह मंजर देखकर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की आदमियता सिसक उठेगी, मेरा भी कलेजा मूंह में आ गया पर बिहार पुलिस ने संवेदनहीनता की प्रकाष्ठा पार कर दी। बुद्धवार की शाम में खबर मिली की शेखपुरा जिले के बरबीघा थाना के कोल्हाड़ाबीघा गांव में नवविवाहिता की हत्या कर शव को गांव में ही जला दिया गया। सूचना पर वहां पहूंचा तो पता चला कि नालन्दा जिले के सरमेरा गांव निवासी अठठारह वर्षिय राजनन्दनी को उसके पति मोहन राम एवं अन्य परिजनों ने हत्या कर दी और गांव के बाहर खेत में शव को जला दिया गया।

(घर के आगे पुलिस का इंतजार करते पीड़ित परिजन)

पुलिस से बहुत विनती करने के बाद भी आरोपी युवक को पकड़ने और हत्या के सबूत जुटाने पुलिस गांव में नहीं पहूंची और हारकर लड़की के परिजन आरोपी युवक के घर पर दिन भर धरने पर बैठे रहे। 
मैं जब वहां पहूंचा तो परिजनों ने सारी बात बताई और फिर जहां युवती के शव को जलाया गया उस जगह को दिखाने ले गए। वहां पहूंचा तो रोम रोम सिहर उठा। शव को जलाने के बाद उस खेत मे हल चला कर उसे जोत दिया गया पर जलने का अवशेष वहां बिखरे पड़े थे। जलाने में उपयोग किए गए लकड़ी और अन्य सामान भी वहीं थे। उसके बाद परिजनों ने दिखाया कि कैसे जलाने के बाद अवशेष छुपाने के लिए उसके राख को जगह जगह खेतों मे ले जाकर फेंका गया है।

खेतों में फेंके गए राख में जले होने के अवशेष साफ दिख रहे थे। कहीं मांस के लोथरे फेंके हुए थे तो कहीं हडडी..। कहीं राख में युवती के चूड़ी और उसकी पायल मिली तो कहीं उसकी बनारसी साड़ी, जिसे देख उसके पिता फफक पडे़......।

फिर परिजनों ने वह जगह भी दिखाई जहां अधजले शव को दफनाए जाने की संभावना थी। उसके बाद एक बार फिर पुलिस को फोन किया गया जिसमें स्पीकर आॅन कर हमें भी सुनाया गया जिसमें थाना प्रभारी ने साफ कहा कि ‘‘हमे और भी बहुत काम है जांच करने के बाद कार्यवाई होगी जहां जाना है जाओ..।’’

(जले हुए अवशेष दिखाते परिजन )

देर शाम पर परिजन लाश के जलाने के जगह पर मिले सबूतों की रक्षा करते रहे पर पुलिस नहीं पहूंची...और परिजन कहते रहे कि ‘‘सर मोटा पैसा ले लिया है सर पुलिस नहीं आएगी, हार कर ही आपके पास पहूंचा.... किसी तरह मेरी बेटी को इंसाफ दिला दिजिए....बड़ी दुलरी थी... अभी कम्पटीशन की तैयारी कर रही थी..सोंचा था नौकरी चाकरी हो जाएगी तो चिंता दूर हो जाएगी....बोलिए सर अभी तो शादी में ही पांच लाख खर्चा किया जिसका कर्जा अभी तक नहीं चुकाया है अब चार महीना बाद ही एक लाख कहां से देते...

मंजर ने मुझे बेचैन कर दिया, अजीब सी झटपटाहट और बेचैनी रात भर रही। आखिर हम इतने निर्मम क्यों है....? दहेज की खातिर लड़कियो को मार दिया जाता है या फिर मरने के लिए विवश कर दिया जाता है? आखिर क्यों लड़कियां ही आत्महत्या भी कर लेती है? कई सवाल मन को मथ रहे है पर जबाब नहीं मिल रहा है.....इस सबके मूल में दहेज ही है तो फिर दहेज की बलि बेदी पर चढ़ी बेटियों के खून के छींटे हम सब के दामन पर भी लगे हुए है...उफ..हत्यारा समाज...

15 अक्तूबर 2014

जब मां बनाती थी भंगरोय्या से काजल..


इस पौधे को देखकर बचपन की बातें याद आ जाती है जब मां काजल बनाने के लिए भंगरोय्या  (लाल दुभी) नामक इस धास को लाने के लिए कहती थी। इस धांस का रस निकाल कर मां उसे कपड़े में भिंगो देती थी और फिर उसकी बत्ती बना कर करूआ तेल (सरसों) का दीया अंधेरे जगह में जलाती थी और फिर उससे निकले कालिख से काजल बनाती थी। इस कालिख को मां फुलिया कहती थी।


फुलिया को गाय के घी में मिला कर काजल बनाती थी और कहती थी यह काजल ठंढी होती है और जब उसे करूआ तेल में मिला कर बनाती थी तो कहती थी यह गर्म होती है.. प्रकृति के साथ यह थी हमारी परंपरागत ज्ञान जो आज के विज्ञान से बहुत आगे थी। एक संवाद..एक आत्मीयता..

आज चरन्नी का काजल सौ, दो सौ में बिकती है। उसका ऐसा ब्रान्डिग किया गया कि महिलाऐं अब घरेलू काजल को बनाना और लगाना भूल गई। हलांकि गांव में अभी भी बहुत महिलाऐं इसी नुस्खे से काजल बनाती है पर घीरे घीरे कुकरौंधा का पैधा भी अब बहुत कम मिलने लगा है....

बात सहज है कि पुंजीवाद के इस दौर में विज्ञापन के हथियार से साम्राजवादियों ने हमसे हमारी संस्कृति, हमारी परम्परा और हमारी आत्मीयता भी छीन रही है और हमें एहसास भी नहीं होता...

01 अक्तूबर 2014

मैला आँचल...विभोर....विभोर..

मैला आँचल

रेणु जी को पढ़ते हुए लगता है अपने आस पास सब देख रहा हूँ
...बोली चाली...और कथा चरित्र , सब कुछ जिन्दा लगता है ....जैसे मेरे गांव की घटना हो...देखिये.. जब गीत होता है ...अरे वो बुडबक बभना....चुम्मा लेबे में जात नहीं रे जाए.....गांव के कई  तथाकथित सभ्य और पाखंडी चेहरे आँखों के आगे नाचने लगते है...

और जब गांधीवादी बालदेव  जी कहते है की खटमल बहुत हो गया तो क्या घर को ही आग लगा देनी  चाहिए....तो आज के हालात..को कोसने वाले हमारे जैसों के लिए करारा जबाब मिल जाता है...

और कॉमरेड कालीचरण.. कैसे डकैती केस में कौंग्रेस के द्वारा फंसा दिया जाता है और बेचारा पार्टी की  बदनामी से चिंतित है और पार्टी उसे छोड़ देती है...इस्तेमाल कर ...

और कैसे आजादी के बाद कौंग्रेस पार्टी पे संघर्ष करने वालों की जगह सेठ- साहूकार कब्ज़ा कर लेते है और सच्चे कॉंग्रेसी को मार देते है....

और काली टोपी वाले.संघी.....दबंग के साथ मिलके.. हिन्दू हिन्दू चिल्लाते है...

और एक पगला डॉक्टर भी... बेचारा....गांव में जीवन देने में जुट जाता है.. पगला....ओह... ओह..
विभोर....विभोर..

सच मुच मौन कर देते है रेणु....

28 सितंबर 2014

समुन्द्र

(यह कविता मैंने गोवा के बागमोलो बीच पर 11 जुलाई 2014 को समुन्द्र किनारे बैठ कर लिखी थी। साथ में अपनी तस्वीर भी चस्पा कर दिया..)

1

समुन्द्र की छाती है
अथाह, अनन्त, अगम, अपार
इसलिए तो
बैठ कर इसके पास
बतिया रहा हूं
अपने सुख-दुख....

2

भरोसा है मुझे
कि यह मेरे दुख को
समेट लेगा
अपनी गहराई में
न कि आदमी की तरह
करेगा उपहास...

3

इसकी ऊँची और विराट लहरें
हैसला देती है मुझे,
कहती है कि
सतत संधर्ष से
यह पहाड़ को भी बदल देती है
रेत में...



26 सितंबर 2014

नवरात्री, गेरूआ और डायन



नवरात्री की रात को बिहार के गांवों में गेरूआ प्रवेश कर जाता है। गेरूआ को गांव के लोग अशुभ मानते है और इसमें कोई शुभ काम नहीं किया जाता। यहां तक की नया वस्त्र अथवा किसी नये सामान का उपयोग नहीं किया जाता है। इसमें बाल और दाढ़ी बनाने को भी अशुभ माना जाता है। 
यह एक ऐसी परम्परा है जिसे अंधविश्वास कहा जा सकता है। गेरूआ को लेकर मान्यता है कि इसमें डायन और ओझा सब दुर्गा और काली का अनुष्ठान करते है। इसी से बचने के लिए हर घर में महिलाऐं नजर लगने से बचाने का उपाय करती है। इसके तहत घर के बाहरी दिवाल को गोबर से लकीर बना कर बांध दिया जाता है और दरवाजे पर काले मिट्टी का बर्तन फोड़ कर रख दिया जाता है और टोटो-माला बांध दिया जाता है।
टोटो-माला काले कपड़े से महिलाऐं बनाती है जिसमें बालू, मिर्च, लहसून, काला और पीला सरसे तथा रैगनी का कांटा डाल कर एक थैली नुमा बना दिया जाता है। इस टोटो माला को बच्चे के गले में लटका दिया जाता है। इतना ही नहीं लोग मवेशियो के गले में भी इसे लटका देते है ताकि इनको नजर लगने से बचाया जा सके। किसान आपने खेतों में भी यह टोटका करते है..
रात्री में बच्चों के आंखों में काजल लगा दिया जाता है और बड़ों को नाभी में काजल लगा कर नजर लगने से बचाने का उपक्रम किया जाता है। 
आज हम आधुनिक युग में जी रहे है। एक तरफ हम मंगलयान को मंगल ग्रह पर पहूंचा रहे है तो दूसरी तरफ इस तरह के अनुष्ठान अंधविश्वास के अतिरिक्त कुछ नहीं।
इस अंधविश्वास को लेकर मुझे बचपन की एक घटना याद आ जाती है। बचपन में गांव में एक महिला को डायन कहा जाता था और वह मेरे मित्र की मां थी। गेरूआ प्रवेश करते ही फुआ, बचपन से इसी के पास रहा हूं,  मुझे उसके घर जाने पर बहुत पीटती थी पर मैं अपने मित्र के पास बिना किसी डर के चला जाता था। उसकी मां मुझे बड़े लाड़-प्यार से कुछ खाने के लिए देती थी तो मैं पहले बाल सुलभ डर से डर जाता था फिर भी दोस्त की मां का दिया खाना खा लेता था। मेरी फुआ मुझे पीटते हुए कहती थी गेरूआ प्रवेश करते ही डायन बच्चों का कलेजा निकाल कर खा जाती है। इतना ही नहीं जागरण की रात में डायन के शमशान में नंगा होकर नाचने और बच्चों के गड़े मुर्दे उखाड़ कर अनुष्ठान करने की अफवाह आज तक फैली हुई है।
मुझ तक भी यह अफवाह बचपन में पहूंची थी तब मैं दशवीं का छात्र था और मैं बचपन में एक जागरण की रात बारह बजे अपने दो तीन दोस्तों के साथ शमशान पहूंच कर इस अनुष्ठान को देखने चला गया। उस डरावनी रात में सभी दोस्तों का कलेजा हल्की सी आवाज पर मुंह में आ जाती। डर से सभी दोस्त थरथर कांप रहे थे पर शमशान से थोड़ी दूर रात भर डायन के आने का इंतजार करता रहा, पर कोई नहीं आई।
मैं आज भी दोस्त की उस मां का प्रणाम करता हूं तो वह अन्र्तमन से आर्शीवाद देती है और जब जब गेरूआ आता है मुझे बचपन की बातें याद आ जाती है। सोंचता हूं कि यह अंधविश्वास जाने कब पूरी तरह से खत्म होगा..

20 सितंबर 2014

आम आदमी को मुफ्तखोर बना रही सरकारें...

बिहार के नालन्दा जिले में इन दिनों बाढ़ राहत के नाम पर आम आदमी की बर्बरता देखने को मिल रही है। आप जिले से होकर यदि गुजर रहे है तो हो सकता है कि लोगों ने सड़क जाम कर रखी हो और आप परेशानी में पड़ जाएं। यह सब हो रहा है रहा है बाढ़ राशि में मची लूट की वजह से।

दरअसल नालन्दा जिला पुर्व सीएम नीतीश कुमार जी का गृह जिला है और इसे बाढ़ प्रभावित क्षेत्र धोषित कर दिया गया। ऐसा नहीं है कि बाढ़ केवल इसी जिले में आई पर लाभ के लिए इसे ही चुना जाना वर्तमान राजनीति की एक विडम्बना को ही दर्शाता है।

बाढ़ राहत बांटने की मांग को लेकर सरमेरा ब्लाॅक के सरकारी अनाज गोदाम को जब किसानों ने लूट लिया तो इसी समय अन्दर ही अन्दर यह छूट दे दी गई कि यहां सभी को बाढ़ राहत दे दी जाए। इसके तहत दो हजार नकद और सौ किलो अनाज दिये जा रहे हैं। इस राहत को लेकर अब लोग सड़कों पर उतर कर हंगामा बरपा रखा है। कहीं अनाज का गोदाम लूटा जा रहा है तो मुखिया और सरकारी कर्मी के साथ मारपीट हो रही है।
सरमेरा में सरकारी अनाज लूटते लोग..

अन्दर ही अन्दर सरकारी लूट की छूट का लाभ वह भी ले रहे है जिनके पास एक धूर जमीन नहीं है। लोग अपने अपने लोगों को राहत लेने के लिए वोटर आई कार्ड लेकर दूर दूर से बुला रहे है। इस फेहरिस्त में क्या गरीब और क्या अमीर सब के सब शामिल है और यह खेल बदस्तूर जारी है।

दरअसल यह सब हो इस लिए रहा है कि अब आम आदमी को भी सरकारी मुफ्तखोरी की आदत लग गई है। हमारी अदूरदर्शी सरकारें आम आदमी इंदिरा आवास, वृद्धा पेंशन, सामाजिक सुरक्षा पेंशन, साईकिल योजना, पोशाक योजना, छात्रवृति के नाम प्रति वर्ष सरकारी रूपये खिलाने की आदी  बना चुकी है जिससे आम आदमी में जागरूकता तो आई नहीं उलटे सरकारी छूट के लूट की भूख बढ़ गई। 

आम आदमी का यह घिनौना चेहरा फूड सिक्योरिटी बिल के तहत मिलने वाले अनाज में भी  देखने को मिला जहां गरीबों को मिलने वाला अनाज व्यवस्था देष की वजह गरीबों में नाम शामिल करा का अमीर ले जा रहे है। उनको तो जरा भी शर्म नहीं आती और वे स्कारपीओ से अनाज लेने के लिए सरकारी दुकानों पर पहूंच कर हमारी सरकारी व्यवस्था का मजाक उड़ाते रहे है।

अब जायज या नाजायाज जैसे भी हो लोग सरकारी लूट में शामिल होना चाहते है, हो रहे है। नतीजा अभी तो अनाज गोदाम को लूटा जा रहा है आगे सरकारी महकमों को नोंच खंसोट दिया जाएगा, देखते रहिए..

18 सितंबर 2014

डायन बता कर परिवार सहित महिला को गांव से भगाया।







डायन बता कर परिवार सहित महिला को गांव से भगाया।

बरबीघा पुलिस ने नहीं सुनी फरियाद।

डायन के आरोप में कई सालों से प्रताडि़त हो रही है महिला।

बरबीघा, शेखपुरा, बिहार



थाने में बैठ कर रोती, गुहार लगाती सत्तर वर्षिय सबुजी देवी को देख यह नहीं कहा जा सकता कि हम आज चाँद और मंगल ग्रह पर जाने वाले आधुनिक युग में जी रहे है। सबुजी देवी, उसके पति अवधेश प्रसाद सहित उसके पूरे परिवार को  गांव वालों ने डायन के आरोप मे मारपीट कर गांव से भगा दिया। इनका पूरा परिवार थाने में शरण ले रखी है।

 यह पूरा मामला बरबीघा नगर पंचायत के नसीबचक मोहल्ले का है। पूरे मामले की जानकारी देती हुई सबुजी देवी रोते हुए कहती है कि उनके उपर डायन होने का यह आरोप कई सालों से लगाया जा रहा है और आज हार कर वह थाने की शरण में आई। सबुजी देवी ने बताया कि पहले वह नालन्दा जिले के सारे थाना के हरगांवा में रहती थी और वहां से भी गांव वालों ने मार-पीट कर भगा दिया। हरगांवा में उनको एक बार जला कर मारने का प्रयास भी किया गया।

 वहीं अवधेश प्रसाद कहते है कि बुद्धवार को पड़ोस के सतीश कुमार के घर उसकी रिश्तेदार अपनी दस साल की बेटी के साथ आई और उसकी तबीयत खराब होने पर गुरूवार की सुबह गांव के सारे लोग जुट कर उसके घर पर आ गए और डायन कह कर उनकी पत्नी के साथ मारपीट करने लगे और प्रतिरोध करने पर उनके तथा उनकी भतीजी रीता देवी, उनकी भाई की पत्नी के साथ भी मारपीट किया।

 इतना ही नहीं गांव के लोग एक जुट होकर उनको और उनके परिवार को गांव से भगा दिया और जब वह बरबीघा थाना फरीयाद लेकर पहूंचे तो वहां से भी भगा दिया और मिशन टीओपी जाने के लिए कहा गया जो कि उनके मोहल्ले में स्थित है।

 वहीं जब ये लोग मिशन टीओपी पहूंचे तो गांव के सारे लोग टीओपी पर पहूंच कर हंगामा करते हुए वहां भी डायन बता कर महिला के साथ मारपीट शुरू कर दी जिसे पुलिस के हस्तक्षेप से रोका गया। गांव वाले उनके  उपर लड़की का कलेजा निकाल लेने का आरोप लगा रहे थे तथा झाड़ फूंक करने के लिए दबाब दे रहे थे। वहीं महिला इस बात पर अड़ी हुई थी कि वह डायन नहीं है तो झाड़-फूंक क्यों करे।






17 सितंबर 2014

तुम आदमी क्यों नहीं हो….

उस दिन
जब मार दिया जायेगा
वह आखरी आदमी भी
जो कर रहा है संघर्ष
गांव/मोहल्लों
गली/कूंचों
में रहकर,
अपने आदमी होने का….

तुम बैठ कर सोंचना?
आखिर
आदमी की तरह
दिखने पर भी
तुम आदमी क्यों नहीं हो….

18 अगस्त 2014

ओशो : कृष्ण प्रतीक हैं हँसते व जीवंत धर्म के..

कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है। अनूठेपन की पहली बात यह है कि कृष्ण हुए तो अतीत में, लेकिन हैं भविष्य के। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं हो पाया कि कृष्ण का समसामयिक बन सके। अभी भी कृष्ण मनुष्य की समझ से बाहर हैं। भविष्य में ही यह संभव हो पाएगा कि कृष्ण को हम समझ पाएँ।
इसके कुछ कारण हैं।
सबसे बड़ा कारण तो यह है कि कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं, जो धर्म की परम गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं। साधारणत: संत का लक्षण ही रोता हुआ होना है। जिंदगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले ही नाचते हुए व्यक्ति हैं, हँसते हुए, गीत गाते हुए। अतीत का सारा धर्म दुखवादी था। कृष्ण को छोड़ दें तो अतीत का सारा धर्म उदास आँसुओं से भरा हुआ था। हँसता हुआ धर्म, जीवन को समग्र रूप से स्वीकार करनेवाला धर्म, अभी पैदा होने को है। निश्चित ही पुराना धर्म मर गया है, और पुराना ईश्वर, जिसे हम अब तक ईश्वर समझते थे, जो हमारी धारणा थी ईश्वर की, वह भी मर गई है।
जीसस के संबंध में कहा जाता है कि वह कभी हँसे नहीं। शायद जीसस का यह उदास व्यक्तित्व और सूली पर लटका हुआ उनका शरीर ही हम दुखी चित्त लोगों के बहुत आकर्षण का कारण बन गया। महावीर या बुद्ध बहुत गहरे अर्थों में जीवन के विरोधी हैं। कोई और जीवन है परलोक में, कोई मोक्ष है, उसके पक्षपाती हैं। समस्त धर्मों ने दो हिस्से कर रखे हैं जीवन के-एक वह, जो स्वीकार करने योग्य है और एक वह, जो इंकार करने के योग्य है।
कृष्ण अकेले ही इस समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। जीवन की समग्रता की स्वीकृति उनके व्यक्तित्व में फलित हुई है। इसलिए इस देश ने और सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है, कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा है। राम भी अंश ही हैं परमात्मा के, लेकिन कृष्ण पूरे ही परमात्मा हैं। और यह कहने का, यह सोचने का, ऐसा समझने का कारण है। और वह कारण यह है कि कृष्ण ने सभी कुछ आत्मसात कर लिया।
अल्बर्ट श्वीत्जर ने भारतीय धर्म की आलोचना में एक बड़ी कीमत की बात कही है, और वह यह कि भारत का धर्म जीवन-निषेधक, ‘लाइफ निगेटिव’ है। यह बात बहुत दूर तक सच है, यदि कृष्ण को भुला दिया जाए। और यदि कृष्ण को भी विचार में लिया जाए तो यह बात एकदम ही गलत हो जाती है। और श्वीत्जर यदि कृष्ण को समझते तो ऐसी बात न कह पाते। लेकिन कृष्ण की कोई व्यापक छाया भी हमारे चित्त पर नहीं पड़ी है। वे अकेले दु:ख के एक महासागर में नाचते हुए एक छोटे से द्वीप हैं। या ऐसा हम समझें कि उदास और निषेध और दमन और निंदा के बड़े मरुस्थल में एक बहुत छोटे-से नाचते हुए मरुद्यान हैं। वह हमारे पूरे जीवन की धारा को नहीं प्रभावित कर पाए। हम ही इस योग्य न थे, हम उन्हें आत्मसात न कर पाए।
मनुष्य का मन अब तक तोड़कर सोचता रहा, द्वंद्व करके सोचता रहा। शरीर को इंकार करना है, आत्मा को स्वीकार करना है, तो आत्मा और शरीर को लड़ा देना है। परलोक को स्वीकार करना है, इहलोक को इंकार करना है तो इहलोक और परलोक को लड़ा देना है। स्वभावत: यदि हम शरीर को इंकार करेंगे, तो जीवन उदास हो जाएगा। क्योंकि जीवन के सारे रसस्रोत और सारा स्वास्थ्य और जीवन का सारा संगीत और सारी वेदनाएँ शरीर से आ रही हैं। शरीर को जो धर्म इंकार कर देगा, वह पीतवर्ण हो जाएगा, रक्तशून्य हो जाएगा। उस पर से लाली खो जाएगी। वह पीले पत्ते की तरह सूखा हुआ धर्म होगा। उस धर्म की मान्यता भी जिनके मन में गहरी बैठेगी वे भी पीले पत्तों की तरह गिरने की तैयारी में संलग्न, मरने के लिए उत्सुक और तैयार हो जाएँगे।
कृष्ण अकेले हैं, जो शरीर को उसकी समस्तता में स्वाकीर कर लेते हैं, उसकी ‘टोटलिटी’ में। यह एक आयाम में नहीं, सभी आयाम में सच है। शायद कृष्ण को छोड़कर… कृष्ण को छोड़कर, और पूरे मनुष्यता के इतिहास में जरथुस्त्र एक दूसरा आदमी है, जिसके बाबत यह कहा जाता है कि वह जन्म लेते ही हँसा। सभी बच्चे रोते हैं। एक बच्चा सिर्फ मनुष्यजाति के इतिहास में जन्म लेकर हँसा है। यह सूचक है। यह सूचक है इस बात का कि अभी हँसती हुई मनुष्यता पैदा नहीं हो पाई। और कृष्ण तो हँसती हुई मनुष्यता को ही स्वीकार हो सकते हैं। इसलिए कृष्ण का बहुत भविष्य है। फ्रॉयड-पूर्व धर्म की जो दुनिया थी, वह फ्रॉयड-पश्चात् नहीं हो सकती। एक बड़ी क्रांति घटित हो गई है, और एक बड़ी दरार पड़ गई है मनुष्य की चेतना में। हम जहाँ थे फ्रॉयड के पहले, अब हम वहीं कभी भी नहीं हो सकेंगे। एक नया शिखर छू लिया गया है और एक नई समझ पैदा हो गई है। वह समझ समझ लेनी चाहिए।
पुराना धर्म सिखाता था आदमी को दमन और ‘सप्रेशन’। काम है, क्रोध है, लोभ हैं, मोह है। सभी को दबाना है और नष्ट कर देना है। और तभी आत्मा उपलब्ध होगी और तभी परमात्मा उपलब्ध होगा। यह लड़ाई बहुत लंबी चली। इस लड़ाई के हजारों साल के इतिहास में भी मुश्किल से दस-पाँच लोग हैं, जिनको हम कह पाएँ कि उन्होंने परमात्मा को पा लिया। एक अर्थ में यह लड़ाई सफल नहीं हुई। क्योंकि अरबों-खरबों लोग बिना परमात्मा को पाए मरे हैं। जरूर कहीं कोई बुनियादी भूल थी। यह ऐसा ही है जैसे कि कोई माली पचास हजार पौधे लगाए और एक पौधे में फूल आ जाएँ, और फिर भी हम उस माली के शास्त्र को मानते चले जाएँ, और हम कहें कि देखो एक पौधे में फूल आए ! और हम इस बात का खयाल ही भूल जाएँ कि पचास करोड़ पौधों में अगर एक पौधे में फूल आते हैं, तो यह माली की वजह से न आए होंगे, यह माली से किसी तरह बच गया होगा पौधा, इसिलए आ गए हैं। क्योंकि माली का प्रमाण तो बाकी पचास करोड़ पौधे हैं, जिनमें फूल नहीं आते, पत्ते नहीं लगते, सूखे ठूँठ रह जाते हैं।
एक बुद्ध, एक महावीर, एक क्राइस्ट अगर परमात्मा को उपलब्ध हो जाते हैं, द्वंद्वग्रस्त धर्मों के बावजूद, तो यह कोई धर्मों की सफलता का प्रमाण नहीं है। धर्मों की सफलता का प्रमाण तो तब होगा, माली तो तब सफल समझा जाएगा, जब पचास करोड़ पौधों में फूल लगें और एक में न लग पाएँ तो क्षमा-योग्य है। कहा जा सकेगा कि यह पौधे की गलती हो गई। इसमें माली की गलती नहीं हो सकती। पौधा बच गया होगा माली से, इसलिए सूख गया है, इसलिए फल नहीं आते हैं।
फ्रॉयड के साथ ही एक नई चेतना का जन्म हुआ और वह यह कि दमन गलत है। और दमन मनुष्य को आत्महिंसा में डाल देता है। आदमी अपने ही से लड़ने लगे तो सिर्फ नष्ट हो सकता है। अगर मैं अपने बाएँ और दाएँ हाथ को लड़ाऊँ तो न तो बायाँ जीतेगा, न दायाँ जीतेगा, लेकिन मैं हार जाऊँगा। दोनों हाथ लड़ेंगे और मैं नष्ट हो जाऊँगा। तो दमन ने मनुष्य को आत्मघाती बना दिया, उसने अपनी ही हत्या अपने हाथों कर ली।
कृष्ण, फ्रॉयड के बाद जो चेतना का जन्म हुआ है, जो समझ आई है, उस समझ के लिए कृष्ण ही अकेले हैं, जो सार्थक मालूम पड़ सकते हैं क्योंकि पुराने मनुष्य-जाति के इतिहास में कृष्ण अकेले हैं, जो दमनवादी नहीं हैं। उन्होंने जीवन के सब रंगों को स्वीकार कर लिया है। वे प्रेम से भागते नहीं। वे पुरुष होकर स्त्री से पलायन नहीं करते। वे परमात्मा को अनुभव करते हुए युद्ध से विमुख नहीं होते। वे करुणा और प्रेम से भरे होते हुए भी युद्ध में लड़ने की सामर्थ्य रखते हैं। अहिंसक चित्त है उनका, फिर भी हिंसा के ठेठ दावानल में उतर जाते हैं। अमृत की स्वीकृति है उन्हें, लेकिन जहर से कोई भय भी नहीं है। और सच तो यह है, जिसे भी अमृत का पता चल गया है उसे जहर का भय मिट जाना चाहिए। क्योंकि ऐसा अमृत ही क्या, जो जहर से फिर डरता चला जाए। और जिसे अहिंसा का सूत्र मिल गया उसे हिंसा का भय मिट जाना चाहिए। ऐसी अहिंसा ही क्या, जो अभी हिंसा से भी भयभीत और घबराई हुई है। और ऐसी आत्मा भी क्या, जो शरीर से भी डरती हो और बचती हो ! और ऐसे परमात्मा का क्या अर्थ, जो सारे संसार को अपने आलिंगन में न ले सकता हो। तो कृष्ण द्वंद्व को एक-सा स्वीकार कर लेते हैं। और इसलिए द्वंद्व के अतीत हो जाते हैं। ‘ट्रांसेंडेंस’ जो है, अतीत जो हो जाना है, वह द्वंद्व में पड़कर कभी संभव नहीं है, दोनों को एक साथ स्वीकार कर लेने से संभव है।
तो भविष्य के लिए कृष्ण की बड़ी सार्थकता है। और भविष्य में कृष्ण का मूल्य निरंतर बढ़ते ही जाने को है। जबकि सबके मूल्य फीके पड़ जाएँगे और द्वंद्व-भरे धर्म जबकि पीछे अँधेरे में डूब जाएँगे और इतिहास की राख उन्हें दबा देगी, तब भी कृष्ण का अंगार चमकता हुआ रहेगा। और भी निखरेगा, क्योंकि पहली दफा मनुष्य इस योग्य होगा कि कृष्ण को समझ पाए। कृष्ण को समझना बड़ा कठिन है। आसान है यह बात समझना कि एक आदमी संसार को छोड़कर चला जाए और शांत हो जाए। कठिन है इस बात को समझना कि संसार के संघर्ष में, बीच में खड़ा होकर और शांत हो। आसान है यह बात समझनी कि आदमी विरक्त हो जाए, आसक्ति के संबंध तोड़कर भाग जाए और उसमें एक पवित्रता का जन्म हो। कठिन है यह बात समझनी कि जीवन के सारे उपद्रव के बीच, जीवन के सारे उपद्रव में अलिप्त, जीवन के सारे धूल-धवाँस के कोहरे और आँधियों में खड़ा हुआ दिया हिलता न हो, उसकी लौ कँपती न हो-कठिन है यह समझना। इसलिए कृष्ण को समझना बहुत कठिन था। निकटतम जो कृष्ण थे, वे भी नहीं समझ सकते।
लेकिन पहली दफा एक महान प्रयोग हुआ है। पहली दफा आदमी ने अपनी शक्ति का पूरा परीक्षण कृष्ण में किया है। ऐसा परीक्षण कि संबंधों में रहते हुए असंग रहा जा सके, और युद्ध के क्षण पर भी करुणा न मिटे। और हिंसा की तलवार हाथ में हो, तो भी प्रेम का दिया मन से न बुझे।
इसलिए कृष्ण को जिन्होंने पूजा भी है, जिन्होंने कृष्ण की आराधना भी की है, उन्होंने भी कृष्ण के टुकड़े-टुकड़े करके किया है। सूरदास के कृष्ण कभी बच्चे से बड़े नहीं हो पाते। बड़े कृष्ण के साथ खतरा है। सूरदास बर्दाश्त न कर सकेंगे। वह बाल कृष्ण को ही..क्योंकि बालकृष्ण अगर गाँव की स्त्रियों को छेड़ आता है तो हमें बहुत कठिनाई नहीं है। लेकिन युवा कृष्ण जब गाँव की स्त्रियों को छेड़ देगा तो फिर बहुत मुश्किल हो जाएगा। फिर हमें समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि हम अपने ही तल पर तो समझ सकते हैं। हमारे अपने तल के अतिरिक्त समझने का हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है। तो कोई है, जो कृष्ण के एक रूप को चुन लेगा; कोई है, जो दूसरे रूप को चुन लेगा। गीता को प्रेम करनेवाले भागवत की उपेक्षा कर जाएँगे, क्योंकि भागवत का कृष्ण और ही है। भागवत को प्रेम करनेवाले गीता की चर्चा में पड़ेगे, क्योंकि कहाँ राग-रंग और कहाँ रास और कहाँ युद्ध का मैदान ! उनके बीच कोई ताल-मेल नहीं है। शायद कृष्ण से बड़े विरोधों को एक-साथ पी लेनेवाला कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। इसिलए कृष्ण की एक-एक शक्ल को लोगों ने पकड़ लिया है। जो जिसे प्रीतिकर लगी है, उसे छांट लिया है, बाकी शक्ल को उसने इंकार कर दिया है।
गांधी गीता को माता कहते हैं, लेकिन गीता को आत्मसात नहीं कर सके। क्योंकि गाँधी की अहिंसा युद्ध की संभावनाओं को कहाँ रखेगी ? तो गांधी उपाय खोजते हैं, वह कहते हैं कि यह जो युद्ध है, यह सिर्फ रूपक है, यह कभी हुआ नहीं । यह मनुष्य के भीतर अच्छाई और बुराई की लड़ाई है। यह जो कुरुक्षेत्र है, यह कहीं कोई बाहर का मैदान नहीं है, और ऐसा नहीं है कि कृष्ण ने कहीं अर्जुन को किसी बाहर के युद्ध में लड़ाया हो। यह तो भीतर के युद्ध की रूपक-कथा है। यह ‘पैरबेल’ है, यह एक कहानी है। यह एक प्रतीक है। गांधी को कठिनाई है। क्योंकि गांधी का जैसा मन है, उसमें तो अर्जुन ही ठीक मालूम पडे़गा। अर्जुन के मन में बड़ी अहिंसा का उदय हुआ है। वह युद्ध छोड़कर भाग जाने को तैयार है। वह कहता है, अपनों को मारने से फायदा क्या ? और वह कहता है, इतनी हिंसा करके धन पाकर भी, यश पाकर भी, राज्य पाकर भी मैं क्या करूँगा? इससे तो बेहतर है कि मैं सब छोड़कर भिखमंगा हो जाऊँ। इससे तो बेहतर है कि मैं भाग जाऊँ और सारे दु:ख वरण कर लूँ, लेकिन हिंसा में न पड़ूँ। इससे मेरा मन बड़ा कँपता है। इतनी हिंसा अशुभ है।
कृष्ण की बात गांधी की पकड़ में कैसे आ सकती हैं ? क्योंकि कृष्ण उसे समझाते हैं कि तू लड़। और लड़ने के लिए जो-जो तर्क देते हैं, वह ऐसा अनूठा है कि इसके पहले कभी भी नहीं दिया गया था। उसको परम अहिंसक ही दे सकता है, उस तर्क को।
कृष्ण का यह तर्क है कि जब तक तू ऐसा मानता है कि कोई मर सकता है, तब तक तू आत्मवादी नहीं है। तब तक तुझे पता ही नहीं है कि जो भीतर है, वह कभी मरा है, न कभी मर सकता है। अगर तू सोचता है कि मैं मार सकूँगा, तो तू बड़ी भ्रांति में है, बड़े अज्ञान में है। क्योंकि मारने की धारणा ही भौतिकवादी की धारणा है। जो जानता है, उसके लिए कोई मरता नहीं है। तो अभिनय है- कृष्ण उससे कह रहे हैं-मरना और मारना लीला है, एक नाटक है।
इस संदर्भ में यह समझ लेना उचित होगा कि राम के जीवन को हम चरित्र कहते हैं। राम बड़े गंभीर हैं। उनकी जीवन लीला नहीं है, चरित्र ही है। लेकिन कृष्ण गंभीर नहीं है। कृष्ण का चरित्र नहीं है वह, कृष्ण की लीला है। राम मर्यादाओं से बँधे हुए व्यक्ति हैं, मर्यादाओं के बाहर वे एक कदम न बढ़ेंगे। मर्यादा पर वे सब कुर्बान कर देंगे। कृष्ण के जीवन में मर्यादा जैसी कोई चीज ही नहीं है। अमर्यादा। पूर्ण स्वतंत्र। जिसकी कोई सीमा नहीं, जो कहीं भी जा सकता है। ऐसी कोई जगह नहीं आती, जहाँ वह भयभीत हो और कदम को ठहराए। यह अमर्यादा भी कृष्ण के आत्म-अनुभव का अंतिम फल है। तो हिंसा भी बेमानी हो गई है वहाँ, क्योंकि हिंसा हो नहीं सकती। और जहाँ हिंसा ही बेमानी हो गई हो, वहाँ अहिंसा भी बेमानी हो जाती है। क्योंकि जब तक हिंसा सार्थक है और हिंसा हो सकती है, तभी तक अहिंसा भी सार्थक है। असल में हिंसक अपने को मानना भौतिकवाद है, अहिंसक अपने को मानना भी उसी भौतिकवाद का दूसरा छोर है। एक मानता है मैं मार डालूँगा, एक मानता है मैं मारूँगा नहीं, मैं मारने को राजी ही नहीं हूँ। लेकिन दोनों मानते हैं कि मारा जा सकता है।
ऐसा अध्यात्म युद्ध को भी खेल मान लेता है। और जो जीवन की सारी दिशाओं को राग की, प्रेम की, भोग की, काम की, योग की, ध्यान की समस्त दिशाओं को एक साथ स्वीकार कर लेता है। इस समग्रता के दर्शन को समझने की संभावना रोज बढ़ती जा रही है, क्योंकि अब हमें कुछ बातें पता चली हैं, जो हमें कभी भी पता नहीं थीं। लेकिन कृष्ण को निश्चित ही पता रही हैं।
जैसे हमें आज जाकर पता चला कि शरीर और आत्मा जैसी दो चीजें नहीं है। आत्मा का जो छोर दिखाई पड़ता है, वह शरीर है, और शरीर का जो छोर दिखाई नहीं पड़ता है, वह आत्मा है। परमात्मा और संसार जैसी दो चीजें नहीं हैं। परमात्मा और प्रकृति जैसा द्वंद्व नहीं है कहीं। परमात्मा का हिस्सा दृश्य हो गया है, वह प्रकृति है। और जो अब भी अदृश्य है, वह परमात्मा है। कहीं भी ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ प्रकृति खत्म होती है और परमात्मा शुरू होता है। बस प्रकृति ही लीन होते-होते परमात्मा बन जाती है। परमात्मा ही प्रगट होते-होते प्रकृति बन जाता है। अद्वैत का यही अर्थ है। और इस अद्वैत की अगर हमें धारणा स्पष्ट हो जाए, इसकी प्रतीति हो जाए, तो कृष्ण को समझा जा सकता है।
साथ ही भविष्य में और क्यों कृष्ण के मूल्य और कृष्ण की सार्थकता बढ़ने को है और कृष्ण क्यों मनुष्य के और निकट आ जाएँगे ? अब दमन संभव नहीं हो सकेगा। बड़े लंबे संघर्ष और बड़े लंबे ज्ञान की खोज के बाद ज्ञात हो सका कि जिन शक्तियों से हम लड़ते हैं, वे शक्तियाँ हमारी ही हैं, हम ही हैं। इसलिए उनसे लड़ने से बड़ा कोई पागलपन नहीं हो सकता। और यह भी ज्ञात हुआ है कि जिससे हम लड़ते हैं, हम सदा के लिए उसी से घिरे रह जाते हैं। उसे हम कभी रूपांतरित नहीं कर पाते। उसका ‘ट्रांसफार्मेशन’ नहीं होता।
अगर कोई व्यक्ति काम से लड़ेगा तो उसके जीवन में ब्रह्मचर्य कभी भी घटित नहीं हो सकता। अगर ब्रह्मचर्य घटित हो सकता है तो एक ही उपाय है कि वह अपनी काम की ऊर्जा को कैसे रूपांतरित करे। काम की ऊर्जा से लड़ना नहीं है, काम की ऊर्जा को कैसे रूपांतरित करे। काम की ऊर्जा से दुश्मनी नहीं लेनी, काम की ऊर्जा से मैत्री साधनी है। क्योंकि हम सिर्फ उसी को बदल सकते हैं, जिससे हमारी मैत्री है। जिसके हम शत्रु हो गए उसको बदलने का सवाल नहीं। जिसके हम शत्रु हो गए उसको समझने का भी उपाय नहीं है। समझ भी हम उसे ही सकते हैं, जिससे हमारी मैत्री है।
तो जो हमें निकृष्टतम दिखाई पड़ रही है, वह भी श्रेष्ठतम का ही छोर है। पर्वत का जो बहुत ऊपर का शिखर है, वह, और पर्वत के पास की जो बहुत गहरी खाई है, ये दो घटनाएँ नहीं हैं। ये एक ही घटना के दो हिस्से हैं। यह जो खाई बनी है, यह पर्वत के ऊपर उठने से बनी है। यह जो पर्वत ऊपर उठ सका है, यह खाई के बनने से ऊपर उठ सका है। ये दो चीजें नहीं हैं। पर्वत और खाई हमारी भाषा में दो हैं, अस्तित्व में एक ही चीज के दो छोर हैं।
नीत्शे का एक बहुत कीमती वचन है। नीत्शे ने कहा है कि जिस वृक्ष को आकाश की ऊँचाई छूनी हो, उसे अपनी जड़े पाताल की गहराई तक पहुँचनी पड़ती हैं। और अगर कोई वृक्ष अपनी जड़ों को पाताल तक पहुँचाने से डरता है, तो उसे आकाश तक पहुँचने की आकांक्षा भी छोड़ देनी पड़ती है। असल में जितनी ऊंचाई, उतने ही गहरे भी जाना पड़ता है। जितना ऊँचा जाना हो उतना ही नीचे भी जाना पड़ता है। निचाई और ऊँचाई दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज के दो आयाम हैं और वे सदा समानुपात हैं, एक ही अनुपात में बढ़ते हैं।
मनुष्य के मन ने सदा चाहा कि वह चुनाव कर ले। उसने चाहा कि स्वर्ग को बचा ले और नर्क को छोड़ दे। उसने कहा कि शांति को बचा ले, तनाव को छोड़ दे। उसने चाहा शुभ को बचा ले, अशुभ को छोड़ दे। उसने चाहा प्रकाश ही रहे, अंधकार न रह जाए। मनुष्य के मन के अस्तित्व को दो हिस्सों में तोड़कर एक हिस्से का चुनाव किया और दूसरे का इंकार किया। इससे द्वंद्व पैदा हुआ, इससे द्वैत पैदा हुआ। कृष्ण दोनों को एक साथ स्वीकार करने के प्रतीक है। नहीं तो अपूर्ण ही रह जाएगा। जितने को चुनेगा, उतना हिस्सा रह जाएगा और जिसको इंकार करेगा, सदा उससे बँधा रहेगा। उससे बाहर नहीं जा सकता है। जो व्यक्ति काम का दमन करेगा, उसका चित्त कामुक-से-कामुक होता चला जाएगा। इसलिए जो संस्कृति, जो धर्म काम का दमन सिखाता है, वह संस्कृति कामुकता पैदा कर जाती है।
हमने कृष्ण के उन हिस्सों का इंकार किया, जो काम की स्वीकृति है। लेकिन अब यह संभव हो जाएगा, क्योंकि अब हमें दिखाई पड़ना शुरू हुआ है कि काम की ऊर्जा, वह जो ‘सेक्स इनर्जी’ है, वह ऊर्ध्वगमन करके ब्रह्मचर्य के उच्चतम शिखरों को छू पाती है। जीवन में किसी से भागना नहीं है और जीवन में किसी को छोड़ना नहीं है, जीवन को पूरा ही स्वीकार करके जीना है। उसको जो समग्रता से जीता है, वह जीवन को पूर्णता को उपलब्ध होता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि भविष्य के संदर्भ में कृष्ण का बहुत मूल्य है और हमारा वर्तमान रोज उस भविष्य के करीब पहुँचता है, जहाँ कृष्ण की प्रतिमा निखरती जाएगी और एक हँसता हुआ धर्म, एक नाचता हुआ धर्म जल्दी निर्मित होगा। तो उस धर्म की बुनियादों में कृष्ण का पत्थर जरूर रहने को है।

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