14 जनवरी 2014

मकरसंक्रान्ति पर कुरीति के खिलाफ आवाज..

मकरसंक्रान्ति को तो वैसे तिल और दही-चुड़ा का त्योहार माना जाता है पर इस पर कुरीतियों का भी कुप्रभाव है। 14 जनवरी को होने वाले इस त्योहार को लेकर बचपन से मैं डांट सुनता रहा हूं। मेरे यहां अंधविश्वास है कि 14 जनवरी के दिन स्नान करने पर कुवांरे लड़के-लड़कियों को दुल्हा-दुल्हन काला मिलते है। 
जब से होश संभाला तब से इसी दिन ही स्नान करने लगा। इसको लेकर भारी डांट पड़ती थी पर मैंने इसके खिलाफ आवाज उठाई। वहीं मकरसंक्रान्ति की सुबह स्नान कर अलाव अथवा बोरसी में तिल जला कर तापने की परंपरा है। इसके साथ ही मां पूजा-पाठ कर अपने बेटों को तिल, चावल और गूड़ का बना प्रसाद देती है। परंपरा अनुसार यह प्रसाद सिर्फ बेटों को ही दिया जाता है। साथ ही प्रसाद देते हुए मां पूछती है कि बड़ा होकर उसको (बह्य) देगी या नहीं? इसका मतलब होता है कि बड़ा होकर बेटा उसको अपनी कमाई देगा अथवा उसकी सेवा करेगा कि नहीं? हलंाकि मैं अपनी मां को ऐसा करने से नहीं रोक सका क्योंकि उसका दिल रखना भी जरूरी था पर इस साल यह पूजा मेरी पत्नी रीना करेगी और सुबह सुबह ही उसने सुना दिया कि (बह्य) वह बेटा और बेटी दोनों को देगी साथ ही उसने कहा कि (बह्य) देते हुए वह बेटा से कभी यह नहीं कहेगी कि कमाई दोगे की नहीं? अपने ही बेटों से यह सौदा क्यों करू? और बेटा-बेटी में अंतर क्यों? बेटी, बेटा से कम नहीं करती सो अंतर क्यों? मन प्रसन्न हो गया और साथ ही यह भी जान गया कि परम्परा को बनाए रखने और तोड़ने में महिलाओं को बड़ा योगदान होता है...

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