26 अगस्त 2017

धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे

” यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥”
(गीता अध्याय ४ श्लोक ७ तथा ८)
(अर्थात – जब धरती पर स्थापित धर्म की हानि हो जाती है और उसके स्थान पर अधर्म और गंदी शक्तिया हावी हो जाती है तो मैं अवतार लेकर धरा पर उतर आता हूँ। मैं हर युग में अधर्म द्वारा धर्म को पहुँचाई गई हानि को दूर करने और साधु-संतों की रक्षा के लिए अवतार लेता हूँ। इस प्रकार मैं धर्म की फिर से स्थपना के साथ ही राक्षसों सरीखे दुष्टों को तहस- नहस कर देता हूँ।)

गीता की इस उक्ति को असंतो की दुर्गति के रूप में चरितार्थ होते हुए देखा जा सकता है। गुरमीत बाबा राम रहीम, स्वामी रामपाल, आसाराम बापू निर्मल बाबा, सहित अनेको व्यक्ति जिसने अपने आपको भगवान घोषित कर रखा और पाप कर्मों में लिप्त रहा उसकी दुर्गति गीता के इस श्लोक को प्रमाणित करते हुए यह भी बताता है कि ईश्वर हमेशा असंतों को सजा देता ही है।

गुरमीत राम रहीम के मामले में सीबीआई जज जगदीश सिंह ने जिस साहस और न्यायप्रियता के साथ एक अबला को इंसाफ देते हुए ईश्वर सरीखे उस आभामंडल को नष्ट कर दिया उससे उनके अंदर की ईश्वरीय शक्ति का भी आभास होता है

हालांकि वोट बैंक की राजनीति को लेकर जिस तरह से राजनैतिक पार्टियों के द्वारा ऐसे अघोरी बाबाओं को संरक्षित किया जाता है उससे यह बात भी सामने आती है कि लोकतंत्र में वोट बैंक मानवीय मूल्यों की स्थापना में पिछड़ जाता है।

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